History
राष्ट्रकूटकालीन प्रशासन और संस्कृति
राष्ट्रकूटकालीन प्रशासन और संस्कृति |
शासन-प्रबन्ध
- राष्ट्रकूट शासन में राजा की स्थिति सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं सर्वोच्च होती थी।
- महाराजाधिराज, परमभट्टारक जैसी उच्च सम्मानपरक उपाधियों के अतिरिक्त राष्ट्रकूट शासक धारावर्ष, अकालवर्ष, सुवर्णवर्ष, विक्रमावलोक, जगत्तुंग जैसी व्यक्तिगत उपाधियां भी धारण करते थे।
- राजपद आनुवंशिक होता था। राजा का बड़ा पुत्र ही युवराज बनता था जो राजधानी में रहते हुए अपने पिता की प्रशासनिक कार्यों में सहायता करता था। छोटे पुत्र प्रान्तों में राज्यपाल बनाये जाते थे।
- राष्ट्रकूट शासक अपनी राजधानी में रहता था जहां उसकी राजसभा तथा केन्द्रीय प्रशासन के कर्मचारी रहते थे। सम्राट अपनी मंत्रिपरिषद् की परामर्श से शासन करता था।
- राष्ट्रकूट शासन में सामन्तवाद की पूर्ण प्रतिष्ठा हो चुकी थी।
- प्रमुख सामन्त अपने अधीन छोटे सामंत रखते थे जिन्हें ‘राजा’ कहा जाता था।
- साम्राज्य राष्ट्र (मण्डल) में विभक्त था। इसका प्रधान अधिकारी ‘राष्ट्रपति’ कहलाता था।
- वह नागरिक तथा सैनिक दोनों प्रकार के शासन का प्रधान था। राष्ट्रपति स्वयं भी सैनिक अधिकारी होता था। उसका पद गुप्त प्रशासन के ‘उपरिक’ नामक पदाधिकारी के समान था।
- राष्ट्रपति को वित्त सम्बन्धी अधिकार भी मिले थे तथा भू-राजस्व के लिए वह उत्तरदायी होता था।
- उसे सम्राट की अनुमति प्राप्त किये बिना भूमिकर माफ करने अथवा विषय के पदाधिकारियों को भी नियुक्ति करने का अधिकार नहीं था।
- प्रत्येक राष्ट्र में कई ‘विषय’ (ज़िला) होते थे तथा प्रधान अधिकारी ‘विषयपति’ था।
- विषयों का विभाजन-भुक्तियों में तथा इसका प्रधान ‘भोगपति’ कहा जाता था।
- विषयपति तथा भोगपति ‘देशग्रामकूट’ नामक वंशानुगत राजस्व अधिकारियों के सहयोग से राजस्व विभाग का प्रशासन चलाते थे। इन अधिकारियों को करमुक्त भूमिखण्ड दिये जाते थे।
- ग्राम का मुखिया ग्रामकूट, ग्रामपति अथवा गावुन्ड कहा जाता था।
- उसका प्रमुख कार्य भूमिकर एकत्रित करके राजकोष में जमा कराना था।
- वंशानुगतपद तथा सेवा के बदले भूमिखण्ड कर मुक्त दिये गये थे।
- राष्ट्रकूट प्रशासन में नगरों तथा ग्रामों दोनों को स्वायत्त शासन का अधिकार प्रदान किया गया था। प्रत्येक ग्राम तथा नगर में जन-समितियों का गठन किया गया था जो स्थानीय शासन का संचालन करती थी।
- कर्नाटक तथा महाराष्ट्र के प्रत्येक गांव में एक सभा होती थी।
- ग्राम-सभा में प्रत्येक परिवार का वयस्क सदस्य होता था। ग्राम के बड़े-बूढ़ों को ‘महत्तर’ कहा जाता था।
- दीवानी मामलों का फैसला ग्राम सभा में ही करती थी।
- राज्य की आय का प्रमुख साधन भूमिकर था जिसे ‘उद्रंग अथवा भोगकर’ कहा जाता था।
- यह उपज का चौथ भाग होता था और प्रायः अनाज के रूप में लिया जाता था।
- राष्ट्रकूट सम्राट साम्राज्यवादी थे तथा अपने साम्राज्य का विस्तार करने के निमित्त अपने एक विशाल तथा शक्तिशाली सेना रखते थे।
- राजधानी में स्थायी सेना रहती थी तथा युद्धों के समय सामन्त अपनी सेनाये भेजते थे।
- राष्ट्रकूट सेनापति वंकेय, श्रीविजय, मारसिंह आदि जैन मतानुयायी थे।
- पदाति सेना सर्वाधिक
धर्म
- जैन तथा ब्राह्मण धर्मों का प्रश्रय दिया।
- दक्षिणापथ में जैन धर्म का विकास हुआ।
- अमोघवर्ष ब्राह्मण धर्म से ज्यादा जैनधर्म में अभिरूचि रखता था। प्रसिद्ध जैन आचार्य जिनसेन उसके गुरु थे। जैन आचार्य गुणभद्र को अपने पुत्र कृष्ण का शिक्षक नियुक्त किया।
- उसने बनवासी में जैन-विहार निर्मित करवाया था।
- बौद्ध धर्म का प्रचार अपेक्षाकृत कम था।
- कन्हेरी का बौद्ध-विहार सर्वाधिक प्रसिद्ध था।
- अरब व्यापारियों को मस्जिद बनाने तथा धर्म का पालन करने की पूरी स्वतंत्रता मिली थी।
साहित्य
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- अमोघवर्ष ने कन्नड़ भाषा में प्रसिद्ध काव्य ग्रंथ ‘कविराजमार्ग’ लिखा था।
- उसकी राजसभा में ‘आदिपुराण’ के लेखक जिनसेन, ‘गणितसार संग्रह’ के रचियता महावीराचार्य तथा अमोघवृत्ति के लेखक साकतायन निवास करते थे।
- कन्नड़ के साथ-साथ संस्कृत का भी विकास होता रहा।
- राष्ट्रकूट लेखों में संस्कृत भाषा का प्रयोग मिलता है।
कला
- राष्ट्रकूट वंश के अधिकांश शासक शैवमतानुयायी थे। अतः उनके काल में शैव मंदिर एवं मूर्तियों का ही निर्माण प्रधान रूप से हुआ।
- एलोरा, एलिफैण्टा, जागेश्वरी, मण्डपेश्वर जैसे स्थान कलाकृतियों के निर्माण के प्रसिद्ध केन्द्र बन गये। एलोरा तथा एलिफैण्टा अपने वास्तु एवं तक्षण के लिए विश्व प्रसिद्ध है।
एलोरा
- महाराष्ट्र के औरंगाबाद में स्थित एलोरा नामक पहाड़ी पर 18 ब्राह्मण (शैव) मन्दिर एवं चार जैन गुहा मन्दिरों का निर्माण करवाया गया।
- राष्ट्रकूट कला पर चालुक्य एवं पल्लव कला शैलियों का प्रभाव स्पष्टतः परिलक्षित होता है।
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