कहानी : वो अग्निकांड...
मैंने अवबोध मस्तिष्क से कुछ यादें संभाली थी कि मेरे परिवार के सदस्य एवं कुछ मजदूर गेहूं के खेत में लगभग फाल्गुन या चैत्र मास के आसपास लावणी कर रहे थें, कि अचानक किसी ने गांव की ओर उठते हुए धुंए को देखकर चीखते हुए पुकारा- अरे! गांव में धुंआ उठ रही है, जाणे तो कोईके आग्य लग गी... किसी ने कहा तथा गांव की ओर देखा तो आग की लपटें देखकर सब स्तब्ध हो गये। किसी को कोई सुध बुध न रही। सभी गांव की ओर दौड चले। अरे! चंदन या कुत्ता रोटी का नातना लेकर भाग रहा है या पेसू रोटी खुसका ला... हडबडाहट में मेरे किसी चाचा ने कहा, ओर वे भी गांव की ओर भाग गये। सबकी दांतली तथा पांत, जो अधूरी थी, छुट गई। हम बालक थे, जो अवबोध थे। आग के खतरों से इतने वाकिफ नही थे, इसलिए हम बेखबर ही रहना चाहते थे, लेकिन किसी बडे आदमी को पास न पाकर हम भी गांव की ओर चल दिये थे। मैं चिन्तामग्न हो गांव की ओर जा रहा था, अवबोध मन में क्या हलचल चल रही थी, कुछ ज्ञात नही थी। नन्हें कदम गांव की ओर दोपहर में धीमें-धीमें बढ रहे थें। हममें कोई तेज दौड रहा था, तो कोई अपनी मस्ती में चल रहा था। किसी को कोई शरारत सूझी भी तो किसी ने उसका...