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प्रायश्चित - एक सीख
एक सुबह ऐसी आयेगी,
कभी सोचा न था।
जीवन के अध्याय में,
कल्पनाओं से परे।
जीवन दर्शन में,
इक नया बदलाव लायेगी,
ऐसा सोचा न था।
हीन होकर मैं रह गया,
जीव-जगत का दुःख सह गया।
गुरू न सीखा सका,
वो सीख एक जीव दे गया।
प्रत्यक्ष अनुभूत हुआ मन से,
कोई विकार था जो,
भ्रम से आच्छादित हो,
ले गया उस पथ पर।
अवबोध मन पे माया का पाश,
फैला था कुछ धुंधलापन ले,
चंद मयूरपंख पाने को,
लालायित से थे मेरे नैन।
संग चचेरा भाई था,
आशाओं से भरे दृगों में,
स्वप्न बस एक यही था।
भोर काल की बेला में,
खगकुल के कलरव गान सुन,
मन उमंग से भरा था,
कही कोई पहले न पहुंचे।
जहां रात्रि विश्राम किया,
मयूर ने,
उस वृक्ष के नीचे,
चंद मयूर पंखों के खातिर,
पहुंच जाते थे वहां,
प्रतिवर्ष यही दोहराव था बचपन का।
एक वर्ष,
एक दिन दोपहर का समय,
मैं भ्राता संग,
हवेली की छत पर,
प्रतीक्षा की मयूर के आने की,
समय विद्यालय में लंच का,
थोड़ी जल्दी में,
हमने देखा एक मयूर,
मात्र दो चंदू थे उसके।
बाकी सब त्याग दिये,
मानों वृक्षों का पतझड़ हो,
देख उसको,
मन में जिज्ञासा
जाग्रत होती थी प्रतिपल,
कहा जायेगा ये मयूर,
बस निगाहों में वही सुरूर था।
कूदे हवेली से पाटौल पर,
नहीं चोट लगने का भय,
जांची परखी थी वह जगह,
जब मयूर एक पड़ौस के घर,
छिपा हुआ था परांडा की ओट में,
तेज भादो मास की धूप में,
व्याकुल था छाव पाने को,
तभी छिपा था अस ओट में।
हम भी कूदे पाटौल से,
देखा उस मयूर को,
सुस्ता रहा था दौड़ धूप में।
मैं अवबोध था उस पल,
ज्ञात नहीं था शायद,
दर्द क्या होता है,
पराया जन मात्र सता रहा था।
निज जन होता तो,
कांटे चुभने का भी भान होता,
पर वह जीव सृष्टि थी प्रकृति की,
मैं मायांध था उस पल,
अवबोध मन पर सिर्फ,
चंद चंदू का लोभ,
पर्दा किये था उस ओर,
धीमी आवाज में,
एक-दूजे ने निर्णय किया।
मैंने बड़ा भाई होने का,
फर्ज निभाया कुछ ऐसा,
क्सकर पकड़े मयूर पंखों को,
तीव्र आहट पा,
सहमा था मयूर तब,
भय से कंपित हो उड़ा तब,
पंख मेरे हाथों में,
दर्द का वह धक्का,
मेरे सीने में तब,
ओर तीव्र हो गया।
खून से सने वो दो चंदू ने,
खंजर की भांति,
आघात किया हृदय पर,
मैं भ्राता संग होश में आकर,
भागा तो कुछ पछताकर,
तीव्र आघात था हृदय पर,
पानी-पानी हो गया मेरा श्रम,
दौड़-धूप की वह थकान,
अब सोच रही थी प्रतिपल।
माया का क्या है, वह तो
ओर रूप में कमा लेंगे।
पर उस जीव के घाव पर,
मरहम हम कैसे लगायेंगे।
यही प्रायश्चित किया मन में,
नहीं किसी जीव को सतायेंगे।
दर्द मयूर का आज भी,
ले जी रहा हूं बस,
मलाल है ऐसे लोभ को,
हम अब नहीं पालेंगे।
कवि - राकेश सिंह राजपूत
मेरे जीवन में घटित वास्तविक घटना जिसने मेरे जीवन को बदल दिया और मैं प्रकृति प्रेमी बन गया। तब शायद मुझे ज्ञात नहीं था कि मोर हमारा राष्ट्रीय पक्षी है। तबसे मैं कभी किसी जीव को नहीं सताता।
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