भारतीय स्थापत्य एवं मूर्तिकला, Bharatiya Sthapatya or murtikala

भारतीय स्थापत्य एवं मूर्तिकला

सैन्धव सभ्यता के अब तक के मिले ध्वंशावशेषों से वास्तु या स्थापत्य कला के कोई खास नमूने प्राप्त नहीं होते। हां, सैन्धव जनों ने नगर-विन्यास का अच्छा नमूना प्रस्तुत किया। उन्होंने चौडी सीधी सड़कों के साथ-साथ मकानों का निर्माण एक सीध में करवाया। सैन्धव जनों के भवन एक खास नमूने के है जिनमें कमरे एक आंगन के चारों ओर बने हैं और छत पर या ऊपर वाली मंजिल पर जाने के लिए सीढ़ियां बनी है।
प्राचीन भारत स्थापत्य कला के स्पष्ट उदाहरण सम्राट अशोक के काल से प्राप्त होते है। जातक ग्रन्थों के अनुसार उसने 84 हज़ार स्तूपों का निर्माण करवाया था। अशोक के उपलब्ध स्मारकों को चार भागों में बांटा जाता है- स्तूप, स्तम्भ, गुफाएं और राजप्रासाद।
अशोक के स्तूपों में वर्तमान में विद्यमान सर्वश्रेष्ठ उदाहरण सांची का स्तूप, भरहुत का स्तूप भी मौर्यकालीन स्थापत्य कला का श्रेष्ठ उदाहरण है। यद्यपिइ न दोनों ही स्तूपों के तोरण और जंगले बाद में बने।
मौर्यकाल के 13 स्तम्भ, दिल्ली, सारनाथ, मुजफ्फरपुर, चम्पारण के तीन गांव, कपिलवस्तु तथा सांची आदि स्थानों पर पाए गए है।
ये स्तम्भ अपनी चमकदार पालिश के लिए प्रसिद्ध है और उनकी पालिश की तुलना उत्तरी काले पालिशदार मृदभांड की पालिश से की जा सकती हैं।
यह अब भी एक रहस्य बना हुआ है कि शिल्पकारों ने स्तम्भों पर इस तरह की पालिश कैसे की?
मौर्यकालीन पालिशदार स्तम्भों के शीर्ष पर पशुओं, विशेषकर सिंह की मूर्तियां हैं। ये सभी स्तम्भ चुनार के लाल पत्थर के बने हुए हैं और इनके दो भाग है - क. लाट या प्रधान दण्डाकार भाग, तथा ख. स्तम्भ शीर्ष या परगहा समूची लाट
यह समूचा परगहा एक ही पत्थर से तराशा हुआ है। शीर्ष वाले स्तम्भ पर बढ़िया पालिश के कारण इतनी चमक है कि दर्शक उसे सोने का समझने लगते है।
मौर्यकालीन शासकों ने बौद्ध भिक्षुओं के निवास के लिए गुफाएं बनवाई थी। इस प्रकार की कुछ गुफाएं गया से 25 किमी. उत्तर में बराबर नामक स्थान से मिली है।
अशोक ने पाटलिपुत्र में बहुत ही सुन्दर राजप्रासाद भी बनवाया था यह प्रासाद 7-8वीं शताब्दियों तक अपनी मूल स्थिति में रहा। 5वीं शताब्दी में फाह्यान ने उसके निर्माण कौशल की प्रशंसा करते हुए लिखा था कि यह मनुष्यों का बनवाया हुआ नहीं हो सकता। इसके सभी भवन के ध्वंशावशेष आज भी विद्यमान हैं।
मौर्यों के परवर्ती शुंग -सातवाहनों का काल भी स्थापत्य की दृष्टि से पर्याप्त महत्वपूर्ण है।
लगभग तीन सौ वर्षों के इस काल के प्रसिद्ध स्मारक हैं- भरहुत और सांची के दो प्रसिद्ध स्तूप, बोध गया में बने जंगले, बेसनगर का प्रसिद्ध स्तम्भ तथा महाराष्ट्र में नासिक के निकट शैलकृत स्थापत्य।
भरतहुत का स्तूप, इसके जंगले और तोरण से प्राप्त मूर्तियां प्रधानतः बौद्ध स्वरूप की है औ रइनका सम्बन्ध बुद्ध के जीवन एवं कार्यों से है।
उसमें पूर्ण सममिति हैं और कोई भी दृश्य अधूरा नहीं हैं।
पक्की ईंटों पर पत्थर का आवरण चढ़ाकर निर्मित सांची के स्तूप का आधार व्यास 60 फुट हैं। यह सब ओर जंगले से घिरा हुआ है। जिसमें चारों दिशाओं में तोरण बने है।
प्रत्येक तोरण में दो सीघे खड़े स्तम्भ है और दन पर तीन प्रस्तरपाद अर्थात् पत्थर की शहतीर रखी हुई हैं, जो दोनों पार्श्वो में बाहर की ओर निकली हुई है। जंगले और तोरण-दोनों पर जातक दृश्यों की भरमार है।
बोध गया के जंगले लगभग 30 है और ये सभी पत्थर या ग्रेनाइट से बने हुए है। इन जंगलो में उत्कीर्ण छोटे गोलाकार चित्रों में पर्याप्त विविधता है।
सांची के निकट विदिशा में बेसनगर स्तम्भ डियोन के पुत्र हैलियोडोरस ने बनवाया था जो विदिशा के शुंग राजा भागभद्र के यहां ऐण्टियाल्किडास का राजदूत था।
अशोक के स्तम्भों से बहुत छोट, बेसनगर स्तम्भ में आठ कोण हैं जो अर्ध-कमल पुष्पों से अलंकृत है। यह 16 फलकों में विभक्त हैं। इसके आगे फलको का एक मोटा गुच्छा हैं और ऊपरी सिरे पर सारी सतह को 32 फलकों में विभक्त कर दिया गया है। स्तम्भ का शीर्षभाग घंटाकृति नमूने का है।
शैलकृत और गुफा मंदिरों के लिए यह युग पर्याप्त विख्यात है। पर्वत को काटकर उसके  अन्दर विशाल मंदिर, विहार या चैत्य खोदे गए हैं। इनमें हाथीगुम्फा सर्वाधिक प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त रानीगुम्फा, गणेश गुम्फा, जय विजय गुम्फा आदि जैसे अनेक गुफा मन्दिर उड़ीसा में पाए गए है। महाराष्ट्र के गुफा मंदिरों में अजंता तथा एलोरा की प्रसिद्ध गुफाओं का निर्माा इसी काल में प्रारम्भ हुआ। इन गुफाओं के अतिरिक्त महाराष्ट्र में बेहसा, नासिक, कार्ले, जुन्नर, कोडाने आदि अनेक स्थानों पर इस काल के गुफा मंदिर विद्यमान है।
स्थापत्य और इससे भी अधिक मूर्तिकला की दृष्टि से कुषाणों का काल प्राचीन भारत में सम्भवतः गुप्त काल के बराबर ही महत्वपूर्ण है।
कुषाणकालीन कला की एक प्रमुख विशेषता स्वयं सम्राट का दैवीय रूप में चित्रित करना है। इसकी पुष्टि कुषाणकालीन सिक्कों से भी हो जाती है।
कुषाण काल में मूर्तिकला की दो भिन्न शैलियों का विकास हुआ जिसे क्रमशः गांधार कला और मथुरा कला शैलियों के नाम से जाना जाता है-

गांधार शैली (50 ई.पू. - 500 ई.)-

इसका विकास प्रथम-द्वितीय शताब्दी में अधिकांशतया गांधार (जो अब पाकिस्तान में है) तथा इसके निकटवर्ती प्रदेश में हुआ।
इस कला के मुख्य केन्द्र थे- जलालाबाद, हद्द और बमियां, स्वात घाटी एवं पेशावर। इसे ‘हिन्द-यूनानी’ (Indo-Greek) शैली के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि इस कला के विषय तो भारतीय हैं, परन्तु शैली यूनानी।
इसके अन्तर्गत बोधिसत्व (गौत्तम बुद्ध) की जिन मूर्तियों का निर्माण किया गया। वे यूनानी देवता अपोलो की मूर्ति से काफी मिलती-जुलती हैं।
उनकी मुद्राएं तो विशुद्ध भारतीय है जैसे कमलासन की मुद्रा में बैठे भगवान बुद्ध, परन्तु मूर्तियों के मुखमण्डल और वस्त्र निश्चित रूप से हेलिनिस्टिक (यूनानी) हैं। उनके वस्त्र भड़कीले है और वे रत्नाभूषणों से मण्डित है। इस कला शैली में बोधिसत्व की मूर्तियों, स्तूप और भिक्षुक ग्रहों का निर्माण प्रचुरता से किया गया।
इन्हें मुख्यतया स्लेटी पत्थरों तथा चिनाई की हुई ईंट या पत्थरों से बनाया गया हैं।

इस शैली की मुख्य विशेषताएं निम्नांकित हैं-

1. इस शैली में मानव शरीर का सजीव चित्रण किया गया है।
2. इसकी परिधान शैली विशिष्ट है। वस्त्रों की सिलवटें बड़ी सूक्ष्मता से दिखाई गई है।
3. शरीर की मांसपेशियों का सूक्ष्म रेखांकन किया गया है।
4. इस शैली में अनुपम नक्काशी हैं। मूर्तियों को प्रचुरता से अलंकृत किया गया हैं।

मथुरा शैली (150-300 ई.)-

कुषाण युग में गांधार के अतिरिक्त और भी केन्द्र थे जहां कला की पर्याप्त उन्नति हो रही थी। ये कला केन्द्र सारनाथ, मथुरा तथा अमरावती थे। इनमें मथुरा मूर्ति शिल्प का सबसे बड़ा केन्द्र था।
मथुरा कला यथार्थवादी न होकर आदर्शवादी थी, जिसमें मुखाकृति में आध्यात्मिक सुख व शांति व्यक्त की गई थी।
मथुरा शैली की समस्त कृतियां सरलतापूर्वक पहचानी जा सकती है। कारण यह है क इनके निर्माण में लाल बलुए पत्थर का प्रयोग किया गया है जो मथुरा के समीपवर्ती सिकरी नामक स्थान से प्राप्त होता था।
गांधार शैली की भांति मथुरा शैली में भी महात्मा बुद्ध के जीवन की चार प्रमुख घटनाओं को प्रदर्शित किया गया है- जन्म, सम्बोधि, धर्मचक्र प्रवर्तन, महापरिनिर्वाण इन चार घटनाओं के अतिरिक्त इस शैली मे बुद्धके जीवन की तीन अपेक्षाकृत गौण घटनाओं को भी प्रदर्शित किया गया है।
इन्द्र को भगवान बुद्ध को दर्शन, बुद्ध का स्वर्ग से माता को ज्ञान देकर वापस जाना तथा लोकपालों द्वारा बुद्ध को भिक्षापात्र अर्पण करना।


अमरावती कला (150 ई.पू. - 400 ई.) -

सफेद संगमरमर से बनने वाली इस शैली की प्रतिमाओं का विकास दक्षिण भारत में कृष्णा और गोदावरी नदियों के मध्य अमरावती नामक स्थान पर हुआ। इस शैली की प्रतिमाओं में शारीरिक सौन्दर्य, मानव भावनाओं की अभिव्यक्ति आदि उल्लेखनीय हैं। सातवाहन राजाओं के संरक्षण में नासिक, भोज, बेदसा और कार्ले में निर्मित बौद्ध चैत्यों (मठों) पर इसी शैली का प्रभाव है।

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