Philosophy
रेने देकार्त
- (1596-1650)
- जन्मः फ्रांस के तुरेन में,
- मृत्युः स्वीडन
- आधुनिक दर्शन का जनक
- बुद्धिवाद का जनक
- दर्शन प्रेमी गणितज्ञ/ वैज्ञानिक प्रणाली को जन्म दिया।
देकार्त की रचनाएं
- डायरेक्शन ऑफ माइन्ड
- डिस्कोर्स ऑन मेथड़स
- ले मोडे
- मेडिटेशन ऑफ फस्ट फिलॉसफी
बुद्धिवाद
- वह दर्शन जो बुद्धि को जगत् का आधार मानता है। समस्त ज्ञान बुद्धि द्वारा ज्ञात है। बुद्धि में निहित जन्मजात प्रत्ययों के निगमन द्वारा समस्त ज्ञान का विकास होता है।
- देकार्त एक गणितज्ञ थे उनका उद्देश्य दर्शन में गणित के समान निश्चितता, सार्वभौतिकता, असंदिग्धता, स्पष्टता का विकास करना था।
- देकार्त के अनुसार ज्ञान वही हैं जो स्पष्ट व असंदिग्ध है।
- देकार्त की दार्शनिक प्रणाली को गणितीय प्रणाली भी कहते है।
- 2+2 = 4 को कोई संदेह की दृष्टि से नहीं देख सकता।
- प्रणाली विमर्श में देकार्त ने बुद्धि का विश्लेषण करते हुए दो मुख्य सिद्धांतों का प्रतिपादन किया-
- क. बुद्धि में यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने का सामर्थ्य है।
- ख. बुद्धि में यथार्थ-अयथार्थ ज्ञान को पृथक करने का भी सामर्थ्य है।
- देकार्त बुद्धिवादी हैं, इनके अनुसार बुद्धि ही यथार्थ ज्ञान की जननी है। यह यथार्थ ज्ञान सार्वभौम, सुनिश्चित और अनिवार्य है। यही ज्ञान का स्वरूप् है। ज्ञान का आदर्श गणित-शास्त्र है।
यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के दो साधन है-
सहज ज्ञान और निगमन
- क. सहजज्ञान/ अन्तर्बोध-
- यह स्वयंसिद्ध सद्यः ज्ञान है। यह पूर्णतः सुस्पष्ट तथा सुभिन्न होता है। यह इन्द्रियों द्वारा प्राप्त नहीं होता। यह मौलिक ज्ञान है।
- ख. निगमन
- यह अनुमान जन्य ज्ञान है।
- देकार्त के अनुसार आधार तो सहज ज्ञान है, परंतु निष्कर्ष निगमनात्मक है।
संदेहवाद
- देकार्त की प्रसिद्ध कृति मेडिटेशन्स सर्वप्रथम संशयवाद से प्रारंभ होती है।
- संदेह ही सत्य की प्राप्ति का साधन, मार्ग या उपाय है। संदेह के बिना सत्य का ज्ञान संभव नहीं। यही संदेह विधि है। उन्हें इस प्रणाली का पिता मानते है।
- सत्य साध्य हैं तथा संदेह साधन है।
- संत ऑगस्टाइन - ज्ञान के लिये विश्वास की आवश्यकता
- देकार्त - विश्वास के लिये ज्ञान की आवश्यकता है।
- देकार्त के समान ही ह्यूम का दर्शन संदेह से प्रारंभ होता है।
- देकार्त के दर्शन में संदेह केवल साधन हैं, परंतु ह्यूम के दर्शन में संदेह साधन और साध्य दोनों है। इसलिए ह्यूम निश्चित रूप से संदेहवादी है।
आत्मा का अस्तित्व
- ‘मैं सोचता हूं’ इसलिए मैं हूं यह सुनिश्चित तथा सुस्पष्ट सत्य है।
- मैं संदेह कर रहा हूं अतः मेरी सत्ता निश्चित रूप से है।
- देकार्त ने संदेह क्रिया से ही संदेहकर्ता की सत्ता को स्वतः सिद्ध माना है। तात्पर्य यह है कि आत्मा की सत्ता ज्ञान की पूर्वमान्यता है।
आत्मा का स्वरूप
- मैं सोचता हूं, इसीलिये मेरी (आत्मा) की सत्ता स्वयं सिद्ध है। यह अनुमान नहीं, वरन् प्रत्यक्ष अनुभूति है।
- मैं- का अर्थ मेरी (आत्मा की) सत्ता चिंतन पर निर्भर है।
- मैं- से स्पष्ट सिद्ध हैं कि मानसिक क्रिया आत्मा के अस्तित्व पर ही निर्भर है।
- मैं सोचता हूं इसलिये मैं हूं अर्थात् ज्ञान होने क कारण आत्मा ही सत्ता का स्वतः सिद्ध है, इससे स्पष्ट पता चलता हैं कि ज्ञान-आत्मा का गुण है अर्थात् आत्मा का धर्म है।
- ज्ञान तथा आत्मा में गुण-गुणी, धर्म-धर्मी का संबंध है।
- मैं सोचता है इसलिये मैं हूं यह सर्वप्रथम असंदिग्ध निश्चयात्मक ज्ञान है।
ईश्वर-विचार
- विचार का स्पष्ट तथा स्वयं सिद्ध होन ही सत्य का मापदण्ड है।
- सर्वप्रथम आत्म तत्व की सत्ता को संदेहातीत स्वयं सिद्ध माना है।
- जो वस्तु आत्म तत्व के समान निस्संदेह, स्वयं सिद्ध हो वही सत्य हैं।
- नैसर्गिक विचार जन्मजात प्रत्यय है जिन्हें मनुष्य बाह्य संसार से नहीं प्राप्त करता।
- आकस्मिक विचार बाह्य संसार से जन्य होते है तथा काल्पनिक विचार शुद्ध कल्पना प्रसूत है। ईश्वर विचार नैसर्गिक या जन्मजात है।
- देकार्त ईश्वर की सत्ता सिद्ध करने के लिये अग्रलिखित प्रमाण देते है-
- कार्य-कारण मूलक तर्क
- सत्तामूलक तर्क
- सृष्टि मूलक
- निगमनात्मक तर्क
- द्रव्य विचार
- देकार्त के अनुसार स्वतंत्रता ही ततव का लक्षण है।
- तात्पर्य यह हैं कि तत्व वह हैं जिसका अस्तित्व किसी दूसरे पर आधारित न हो।
- द्रव्य
- निरपेक्ष (ईश्वर) और सापेक्ष (चित् और अचित्)
- तत्व संख्या - 3
- ईश्वर, चित् और अचित्
- सापेक्ष का अर्थ ईश्वरापेक्ष हैं, अर्थात् चित् और अचित् का अस्तित्व ईश्वर पर आधारित है।
- चित् का गुण विचार है तथा अचित् का गुण विस्तार है। ये विरोधी गुण है।
- मन और शरीर
- मन का गुण है विचार और शरीर का गुण विस्तार है।
- द्वैतवाद
- जड़ और चेतना दोनों विरोधी है। अतः इनमें कोई पारस्परिक संबंध संभव नहीं।
- इसका उत्तर देकार्त अपने चिदचित् संयोगवाद सिद्धांत के द्वारा देते है।
- यही देकार्त का अन्तर्क्रियावाद या क्रिया-प्रतिक्रियावाद का सिद्धांत कहलाता है।
- इस सिद्धांत के अनुसार आत्मा और शरीर में पीनियल ग्रंथि के द्वारा क्रिया-प्रतिक्रिया होती है।
- शरीर की क्रिया से आत्मा में प्रतिक्रिया होती है। जिसके फलस्वरूप आत्मा को बाह्य जगत का ज्ञान प्राप्त होता है।
- इसी प्रकार आत्मा की क्रिया से शरीर में प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है जिसके फलस्वरूप शरीर में विचार के अनुकूल व्यवहार होने लगता है।
- पिनियल ग्रन्थि मन और शरीर का मिलन बिंदु है।
- देकार्त को उग्र द्वैतवादी कहा जाता है।
- चेतन और अचेतन, मन और शरीर, भौतिक और आध्यात्मिक का विरोध ही द्वैतवाद का आधार है।
- गुणों में द्वैत है- गुण दो है क. मूलगुण- आकृति, विस्तार
- ख. उपगुण- रूप, रस
- इनका द्वैतवाद स्पिनोजा के दर्शन में अद्वैतवाद बन गया तथा इनका अंतर्क्रियावाद समानांतर वाद में बदल गया।
- देकार्त सर्वप्रथम दार्शनिक है जिनका दृष्टिकोण वैज्ञानिक है। देकार्त दार्शनिक महल को वैज्ञानिक नींव पर खड़ा करना चाहते है।
- ईश्वर का प्रत्यय सार्थक तथा जन्मजात प्रत्यय होता है। जिसे ‘आजानिक प्रत्यय’ भी कहते है। देकार्त ने ईश्वर को ‘जगत’ का ‘निमित्त’ कारण माना है।
- देकार्त का ईश्वरवादी सिद्धांत ‘केवलीश्वरवाद’ भी कहा जाता है अर्थात् ईश्वर जगत् का निर्माण कर इससे परे रहता है।
देकार्त का बुद्धिवाद
- देकार्त का ज्ञान-सिद्धांत पूर्णतः बुद्धिवादी है।
- दर्शन की विधिः
- लक्षण सूत्र- जब तक किसी बात को स्पष्टतः तथा असंदिग्धतः न जान लिया जाए तब तक उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए। इसी सूत्र के कारण देकार्त की विधि को संशय विधि कहा जाता है।
- विश्लेषण सूत्र - हमें अपनी समस्या को सरलतम भागोें में विभाजित कर लेना चाहिए।
- संश्लेषण सूत्र - सरलतम से जटिल की ओर लौटना
- समाहार सूत्र - परिगणना को इतना पूर्ण बना लेना कि किसी भी हिस्से के छूट जाने की गुंजाइश न रहे।
- संदेह करना, सोचना आदि आंतरिक क्रियाएं है जिसका कर्ता अनिवार्य है। यहीं कर्ता आत्मा है।
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1 Comments
Very good post sir
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