कल्पना दत्त

भारतीय स्वतंत्रता में अपना अमूल्य योगदान देने वाली प्रमुख महिला क्रांतिकारी जिन्होंने अपने देश के लिए सब कुछ लूटा कर देश सेवा की, उनके बारे में पढ़ें रोचक तथ्य-

कल्पना दत्त


सूर्यसेन के क्रांतिकारी दल की ही एक ओर बहादुर क्रांतिकारी सैनिक थी कल्पना दत्त। उनका जन्म 27 जुलाई, 1914 को चटगांव में हुआ। माता का नाम शोभना देवी और पिता का नाम विनोद बिहारी दत्त था। 
बचपन से ही इस बालिका को साहसी कहानियां सुनने का बड़ा शौक था। बचे समय में वह व्यायाम करती और तैराकी सीखती ताकि बहादुरी के काम करने के लिए शरीर को मज़बूत बनाया जा सके। उसके दो चाचा आन्दोलन में भाग ले रहे थे। वह उनसे काफी प्रेरित थी।
इसी दौरान सूर्यसेन के दल का एक सदस्य तारकेश्वर दस्तीदार ने उसे दल में शामिल होन के लिए प्रेरित किया। अप्रैल 1930 में श्री नेहरू की गिरफ्तारी पर उसने कॉलेज में हड़ताल करवा दी। उन्हीं दिनों में 18 अप्रैल, 1930 को क्रांतिकारियों ने चटगांव के शस्त्रागार पर भारी हमला कर उसे लूटा और अपने कब्जे में ले लिया। 
इस अचानक हमले से अंग्रेज शासक बौखला गये। चटगांव के चप्पे-चप्पे पर पुलिस बिठा दी गई। बड़ी कठिनाई से कल्पना कलकत्ता से चटगांव आई और उसने दल के लोगों से संपर्क किया। चटगांव के क्रांतिकारियों पर जेल में मुकदमा चल रहा था। बाहर के साथियों ने तय किया कि जिस दिन रामकृष्ण और दिनेश गुप्ता को फांसी की सजा दी जाये, उसी दिन 'डाइनामाइट' से जेल उड़ा दी जाये, बड़े पैमाने पर तैयारी हो गई। जेल उड़ाने का काम कल्पना व उसके साथियों को मिला। पर किसी सूत्र से पुलिस को खबर मिल गई और उनकी योजना पर अमल नहीं हो पाया। 17 सितम्बर, 1932 की उस रात पहाड़ी तल्ला के निकट पुरुष वेष में घूमती हुई कल्पना दत्त पुलिस के हाथ पड़ गई। कल्पना पर मुकदमा चलाया गया।
रामकृष्ण व दिनेश गुप्ता को फांसी दे दी गई। कल्पना पर दफा 109 में अभियोग था कि उसने अपने घर में चटगांव शस्त्रागार के हथियार छुपाये और लड़कियों को क्रांतिकारी दल में शामिल होने के लिए भड़काया। अभियोग ठीक थे, पर पूरी तरह राजनीतिक थे। ये अभियोग दफा 109 में नहीं लगाये जा सकते थे। इसलिए कल्पना जमानत पर छूट गई। परंतु उसके घर पर सशस्त्र पुलिस का पहरा बैठा दिया गया। मास्टर दा (नेता सूर्यसेन) का संदेश पाकर किसी तरह मौका निकाल क रवह घर से भाग गई। एक दिन कल्पना, सूर्यसेन व अन्य साथी गोशल गांव के एक मकान में छिपे थे कि पुलिस वहां भी पहुंच गई। स्थिति को तुरन्त भांप, ये लोग भाग निकले। परन्तु 16 फरवरी, 1933 को सूर्यसेन और कल्पना रात का खाना खाकर किसी काम से निकलने वाले थे कि पुलिस ने घर घेर लिया और वहीं पुलिस से मुठभेड़ हो गई। दो घंटे तक आमने-सामने चली लड़ाई के बाद लेता सूर्यसेन गिरफ्तार हो गये। कल्पना फिर भी छिप-छिप कर शत्रु पर गोली चलाती हुई भाग निकलने में सफल रही। मई 1933 में उन्हें अंततः गिरफ्तार कर लिया गया।
सूर्यसेन, तारकेश्वर, कल्पना आदि पर चटगांव शस्त्रागार कांड के सम्बन्ध में मुकदमा चला। 12 फरवरी, 1934 को सूर्यसेन और तारकेश्वर दस्तीकार को फांसी की सजा मिली और कल्पना को उम्र कैद की। मिदनापुर जेल में वह गांधीजी से भी मिली थी। 
अपनी पुस्तक ‘चटगांव शस्त्रागार आक्रमण के संस्मरण’ में उसने लिखा जेल में गांधी जी मुझसे मिलने आये। वे मुझसे मेरी क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण बहुत नाराज थे। पर उन्होंने कहा, ‘मैं फिर भी तुम्हारी रिहाई के बारे में प्रयत्न करूंगा।’ इस तरह, 1937 में जब प्रांतीय स्व-शासन लागू हुआ तो गांधीजी, रवीन्द्र नाथ ठाकुर और सी.एफ. एंड्रयूज के विशेष प्रयत्नों से 1 मई, 1939 को कल्पना रिहा हो गई। बाहर आकर कल्पना ने एम.ए. में प्रवेश लिया और कम्पयुनिस्ट पार्टी की सदस्य बनकर ‘ट्रेड यूनियन वर्कर’ के रूप में कार्य करने लगी। 
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद क्रांतिकारी गतिविधियों में फिर से सक्रिय होने के कारण वर्ष 1941 में उन पर फिर पाबंदिया लगा दी गई जिससे 1942 के आंदोलन में सीधे भाग लेना उसके लिए कठिन हो गया। कम्यूनिस्ट पार्टी में भाग लेते समय ही कल्पना की भेंट कम्युनिस्ट नेता श्री पी.सी. जोशी से हुई और 4 अगस्त, 1943 को वे विवाह बंधन मे बंध गए। भारत विभाजन के बाद वह कलकत्ता आ गई। कलकत्ता मं अध्यापन कार्य करने के बाद कल्पनाजी कुछ समय दिल्ली मं ‘इंडो-सोवियत कल्चरल सोसायटी’ में कार्यरत रहीं। 
‘महिला वर्ष’ 1975 में राजधानी में उनका सम्मान किया गया था और भारत सरकार द्वारा स्वतंत्रता सेनानियों का मिलने वाली उनकी पेंशन राशि बढ़ाकर दोगुनी कर दी गई थी। 

24 सितम्बर, 1979 को पूना में उन्हें ‘वीर महिला’ की उपाधि से सम्मानित व पुरस्कृत किया गया।


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