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पल्लव कला और साहित्य
- पल्लवों की वास्तु एवं तक्षण कला दक्षिण भारतीय कला के इतिहास में सर्वाधिक गौरवशाली अध्याय हैं।
- पल्लव वास्तुकला ही दक्षिण की द्रविड कला शैली का आधार बनी। उसी से दक्षिण भारतीय स्थापत्य की तीन प्रमुख अंगों का जन्म हुआ। जो निम्न हैः- 1. मण्डप, 2. रथ तथा 3. विशाल मंदिर।
- प्रसिद्ध कलाविद् पर्सी ब्राउन ने पल्लव वास्तुकला के विकास की शैलियों को चार भागों में विभक्त किया है। इनका विवरण इस प्रकार हैं-
1. महेन्द्र शैली 610-640 ईस्वी
- पल्लव वास्तु का प्रारम्भ वस्तुतः महेन्द्रवर्मन् प्रथम के समय से हुआ जिसकी उपाधि 'विचित्रचित्र' की थी।
- मण्डगपट्टु लेख में वह दावा करता है कि उसने ईंट, लकडी, लोहा, चूना आदि के प्रयोग के बिना एक नई वास्तु शैली को जन्म दिया।
- यही नयी शैली ‘मण्डप वास्तु‘ थी जिसके अंतर्गत गुहा मन्दिरों के निर्माण की परम्परा प्रारंभ हुई।
- तोण्डमण्डलम् की प्रकृत शिलाओं को उत्कीर्ण कर मन्दिर बनाये गये जिन्हें ‘मण्डप‘ कहा जाता है।
- ये मण्डप साधारण स्तम्भयुक्त बरामदे है जिनकी पिछली दीवार में एक या अधिक कक्ष बनाये गये।
- इनके पार्श्व भाग में गर्भगृह रहता है। शैव मण्डप के गर्भगृह में लिंग तथा वैष्णव के गर्भगृह में विष्णु की प्रतिमा स्थापित रहती थी।
- मण्डप के बाहर बने मुख्य द्वार पर द्वरपालोंकी मूर्तियां मिलती है जो कलात्मक दृष्टि से उच्चकोटि की है।
- मण्डप के सामने स्तम्भों की एक पंक्ति मिलती है। प्रत्येक स्तम्भ 7 फीट उंचा है। स्तम्भ संतुलित ढंग से नियोजित किये गये है तथा दो स्तम्भों के बीच समान दूरी बडी कुशलतापूर्वक रखी गयी है।
- स्तम्भों के तीन भाग दिखाई देते है। आधार तथा शीर्ष भाग पर दो फीट का आयत है जबकि मध्यवर्ती भाग अष्टकोणीय बना है।
- स्तम्भ प्रायः चौकोर है जिसके उपर के शीर्ष सिंहाकार बनाये गये है।
- महेन्द्रशैली के मण्डपों में मण्डगपट्टु का त्रिमूर्ति मण्डप, पल्लवरम् का पंचपाण्डव मण्डप, महेन्द्रवाडी का महेन्द्रविष्णु गृहमण्डप मामण्डूर का विष्णुमण्डप, त्रिचनापल्ली का ललितांकुर पल्लवेश्वर गृहमण्डप आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
- इस शैली के प्रारम्भिक मण्डप सादे तथा अलंकरण रहित है किन्तु बाद के मण्डपों को अलंकृत करने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। पंचपाण्डव मण्डप में छः अलंकृत स्तम्भ लगाये है, जिनपर कमल फुल्लक, मकर तोरण, तरंग मंजरी आदि के अभिप्राय अंकित है।
2. मामल्ल शैली 640-674 ई.
- विकास नरसिंहवर्मन् प्रथम के शासनकाल में।
- उसने ‘महामल्ल‘ की उपाधि धारण की थी, इसलिए उसके शासनकाल की स्थापत्य शैली को ‘मामल्ल शैली‘ कहा गया है।
- इसी ने ‘मामल्लपुरम‘ महाबलीपुरम् नगर की स्थापना की थी।
- इस शैली में दो प्रकार के मन्दिर का निर्माण हुआ - प्रथम ‘मण्डप षैली‘ तथा दूसरा रथ के आकार के।
- एकाश्मक मन्दिर ‘मोनोलिथिक टेम्पलस‘ जिन्हें ‘रथ‘ कहा गया है।
- इस शैली में निर्मित सभी स्मारक मामल्लपुरम् में विद्यमान है।
- यहां मुख्य पर्वत पर दस मण्डप बनायें गये है। इनमें आदिवराह मण्डप, महिषामर्दिनी मण्डप, पंचपाण्डव मण्डप, रामानुज मण्डप आदि विशेष प्रसिद्ध है।
- मण्डपों का आकार-प्रकार बडा नहीं है।
- इनके ऊपर पद्म, कुम्भ, फलक आदि अलंकरण बने हुए हैं।
- मण्डप अपनी मूर्तिकारी के लिये प्रसिद्ध है। इनमें उत्कीर्ण महिषामर्दिनी, अनन्तशायी विष्णु, त्रिविक्रम, ब्रह्मा, गजलक्ष्मी, हरिहर आदि की मूर्तियां कलात्मक दृष्टि से अत्युत्कृष्ट है।
- पंचपाण्डव मण्डप में कृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वतधारण किये जाने का दृश्य अत्यन्त संुदर है।
- आदिवराह मण्डप में राजपरिवार के दो दृश्यों का अंकन मिलता है। पहली मूर्ति में राजा सुखासन मुद्रा में बैठा है जिसके दोनों और उसकी दो रानियां खडी है। इसकी पहचान सिंहविष्णु से की गई है।
- दूसरी मुद्रा में महेन्द्रवर्मन द्वितीय अपनी
- मामल्लशैली के मण्डप महेन्द्र शैली के विकसित रूप को प्रकट करते है।
- रथ मन्दिर, महाबलीपुरम्
- मामल्लशैली की दूसरी रचना रथ ‘एकाश्मक‘ मन्दिर है।
- पल्लव वास्तुकारों ने विशाल प्रकृत चट्टानों को काटकर जिन एकाश्मक पूजागृहों की रचना की उन्हीं को रथ कहा जाता है।
- शिला के अनावश्यक भाग को अलग कर अपेक्षित स्वरूप को उपर से नीचे की और उत्कीर्ण किया जाता था। रथ मन्दिरों का आकार-प्रकार अन्य कृतियों की अपेक्षा छोटा है। अधिक से अधिक 42 फुट लम्बे, 35 फुट चौडे तथा 40 फुट उंचे है तथा पूर्ववर्ती गुहा-विहारों अथवा चैत्यों की अनुकृति पर निर्मित प्रतीत होतें हैं।
- प्रमुख रथ हैं- द्रोपदी रथ, नकुल-सहदेव रथ, अर्जुन रथ, भीम रथ, धर्मराज रथ, गणेश रथ, पिडारि ‘ग्राम्य-देवी‘ रथ तथा वलैयकट्टै रथ।
- प्रथम पांच दक्षिण में तथा अन्तिम तीन उत्तर और उत्तर-पश्चिम में स्थित है।
- ये सभी शैव मन्दिर प्रतीत होते है।
- द्रौपदी रथ सबसे छोटा है। यह सचल देवायतन की अनुकृति है, जिसका प्रयोग उत्सव और शोभा यात्रा के समय किया जाता है, जैसे पुरी का रथ। इसका आकार झोंपडी जैसा है।
- उसमें किसी प्रकार का अलंकरण नही मिलता तथा यह एक सामान्य कक्ष की भांति खोदा गया। यह सिंह तथा हाथी जैसे पशुओं के आधार पर
- अन्य सभी रथ बौद्ध विहारों के समान समचतुष्ट आयताकार है तथा इनके शिखर नागर अथवा द्रविड शैली में बनाये गये हैं।
- विमान के विविध तत्वों - अधिष्ठान, पादभित्ति प्रस्तर, ग्रीवा, शिखर तथा स्तूप इनमें स्पष्टतः दिखाई देते है।
- गणेश रथ का शिखर बेसर शैली में निर्मित है। धर्मराज रथ सबसे अधिक प्रसिद्ध है। इसके ऊपर पिरामिड के आकार का शिखर 'ढोलाकार' बनाया गया है।
- पर्सीब्राउन के शब्दों में ‘इस प्रकार की योजना न केवल अपने में एक प्रभावपूर्ण निर्माण है अपितु शक्तियों से परिपूर्ण होने के साथ-साथ सुखद रूपों तथा अभिप्रायों का भण्डार है।
- इसे द्रविड मन्दिर शैली का अग्रदूत कहा जा सकता है। भीम, सहदेव तथा गणेश रथों का निर्माण चैत्यगृहों जैसा है। यह दीर्घाकार सहदेव रथ अर्द्धवृत्त के आकार का है।
- मामल्ल शैली के रथ अपनी मूर्तिकला के लिये भी प्रसिद्ध है।
- नकुल-सहदेव रथ के अतिरिक्त अन्य सभी रथों पर विभिन्न देवी-देवताओं जैसे- दुर्गा, इन्द्र, शिव, गंगा, पार्वती, हरिहर, ब्रह्मा, स्कन्द आदि की मूर्तियां उत्कीर्ण मिलती है।
- द्रौपदी रथ की दीवारों में तक्षित दुर्गा तथा अर्जुन रथ की दीवारों में बनी शिव की मूर्तियां विशेष रूप से प्रसिद्ध है।
- धर्मराज रथ पर नरसिंहवर्मन् की मूर्ति अंकित है।
- इन रथों को 'सप्त पैगोडा' कहा जाता है। दुर्भाग्यवश इनकी रचना अपूर्ण रह गयी हैं।
3. राजसिंह शैली 674-800 ई.
- इस शैली का प्रारम्भ पल्लव नरेश नरसिंह वर्मन द्वितीय 'राजसिंह' ने किया।
- इसके अन्तर्गत गुहा-मन्दिरों के स्थान पर पाषाण, ईंट आदि की सहायता से इमारती मन्दिरों का निर्माण करवाया। इस शैली के मन्दिरों में से तीन महाबलीपुरम् से प्राप्त होते है- शोर मन्दिर 'तटीय शिव मंदिर' ईश्वर मन्दिर तथा मुकुज्ञन्द मन्दिर।
- शोर मन्दिर इस शैली का प्रथम उदाहरण है। इनके अतिरिक्त पनमलाई 'उत्तरी अकार्ट' मन्दिर तथा कांची के कैलाशनाथ एवं बैकुण्ठपेरूमाल मंदिर भी उल्लेखनीय हैं।
- महाबलीपुरम् के समुद्रतट पर स्थित शोर मंदिर पल्लव कलाकारों की अद्भुत कारीगरी का नमूना है।
- प्रवेश द्वार पश्चिम की ओर
- इसका गर्भगृह धर्मराज रथ के समान वर्गाकार है, जिसके ऊपर अष्टकोणिक शुंडाकार विमान कई तल्लों वाला है।
- गर्भगृह समुद्र की ओर है तथा इसके चारों ओर प्रदक्षिणापथ है। मुख्य मंदिर के पश्चिमी किनारे पर बाद में दो ओर मंदिर जोड दिये गये हैं।
- इसका शिखर सीढीदार है तथा उसके शीर्ष पर स्तूपिका बनी हुई है। दीवारों पर गणेश, स्कन्द, गज, शार्दूल आदि की मूर्तियां उत्कीर्ण मिलती है। इसमें सिंह की आकृति को विशेष रूप से खोद कर बनाया गया है।
- ये घेरे की भव्य दीवार के मुर्डेर पर उॅकडू बैठे हुए बैलों की मूर्तियां बनी है तथा बाहरी भाग के चारों ओर थोडी-थोडी अन्तराल पर सिंह-भित्ति-स्तम्भ बने है।
- इस प्रकार यह द्रविड वास्तु की एक सुन्दर रचना है। कांची स्थित कैलाशनाथ मंदिर राजसिंह शैली के चरम उत्कर्ष को व्यक्त करता है।
- इसका निर्माण नरसिंहवर्मन द्वितीय के समय प्रारम्भ हुआ तथा उसके उत्तराधिकारी परमेश्वरवर्मन द्वितीय के समय में इसकी रचना पूर्ण हुई।
- द्रविड शैली की सभी विशेषतायें जैसें - परिवेष्ठित प्रांगण, गोपुरम्, स्तम्भयुक्त मण्डप, विमान आदि इस मंदिर में एक साथ प्राप्त हो जाती है। ग्रेनाइट, बलुआ पत्थर
- इसका गर्भगृह आयताकार है जिसकी प्रत्येक भुजा 9 फीट है। इसमें पिरामिडनुमा विमान तथा स्तम्भयुक्त मण्डप है। मुख्य विमाान के चारो ओर प्रदक्षिणापथ है। पूर्वी दिशा में गोपुरम् दुतल्ला है।
- मन्दिर में शैव सम्प्रदाय एवं शिव लीलाओ से सम्बंधित अनेक सुन्दर-2 मूर्तियां
- बैकुण्ठपेरूमाल का मन्दिर का निर्माण परमेश्वरवर्मन द्वितीय के समय हुआ। यह भगवान विष्णु का मन्दिर हैं जिनमें प्रदक्षिणापथयुक्त गर्भगृह एवं सोपानयुक्त मण्डप है। मंदिर का विमान वर्गाकार एवं चारतल्ला है।
- मंदिर की भीतरी दीवारों पर युद्ध, राज्याभिषेक, अश्वमेघ उत्तराधिकार-चयन, नगर-जीवन आदि के दृश्यों को भी अत्यन्त सजीवता एवं कलात्मकता के साथ उत्कीर्ण।
- ये विविध चित्र रिलीफ स्थापत्य के सुन्दर उदाहरण। मंदिर में भवय एवं आकर्षक स्तम्भ, पल्लव वास्तुकला का विकसित रूप इस मंदिर में दिखाई देता है।
4. नन्दिवर्मन्-शैली 800-900 ई. अपराजित
- अपेक्षाकृत छोटे मन्दिरों का निर्माण हुआ।
- कांची के मुक्तेश्वर एवं मातंगेश्वर, ओरगडूम् का वडमल्लिश्वर मंदिर, तिरूतैन का वीरट्टनेश्वर, गुडिडमल्लम का परशुरामेंश्वर मंदिर आदि है।
- कांची के मंदिर इस शैली के प्राचीनतम नमूनें है।
- इनमें प्रवेशद्वार पर स्तम्भयुक्त मण्डप बने है।
- शिखर वृत्ताकार अर्थात् बेसर शैली का है।
- विमान तथा मण्डप एक उंची चौकी पर स्थित है छत चपटी है। धर्मराज रथ की अनुकृति प्रतीत होते है।
इसके बाद चोल शैली से प्रभावित
- इस प्रकार पल्लव राजाओं का शासनकाल कला एवं स्थापत्य की उन्नति के लिये अत्यंत प्रसिद्ध रहा। पल्लव काल का प्रभाव कालान्तर में चोल तथा पाण्ड्य कला पर पडा तथा यह दक्षिण-पूर्व एशिया में भी पहुंची। इस शैली के मंदिरों में अभिषेक जल के निकास प्रणाली की व्यवस्था।
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