Indian History
अकबर की धार्मिक नीति और दीन-ए-इलाही
- अकबर की महानता उसकी धार्मिक नीति पर आधारित है। उसने तुर्क-अफगान शासकों की धार्मिक विभेद की नीति के स्थान पर उदार नीति अपनाई तथा सभी धर्मों एवं सम्प्रदायों में एकता और समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया।
सहिष्णुता के लिए किया प्रारम्भिक कार्य-
- अकबर की धार्मिक नीति को निम्नलिखित तीन चरणों में बांटा जा सकता है-
- प्रथम चरण के अन्तर्गत 1562-75 ई.
- द्वितीय चरण के अन्तर्गत 1575 -79
- तृतीय चरण के अन्तर्गत 1579-82
- 1562 ई. में अकबर ने एक आदेश जारी किया, जिसके अनुसार हिन्दू युद्धबन्दियों को जबरदस्ती इस्लाम में दीक्षित करना वर्जित कर दिया।
- 1562 ई. में दास प्रथा पर रोक लगाई, पंजाब में गो हत्या पर रोक।
- 1563 ई. में उसने हिन्दुओं पर तीर्थ-यात्रा कर समाप्त कर दिया।
- 1564 ई. में हिन्दुओं पर लगने वाला घृणित जजिया कर हटाया।
- अकबर ने हिन्दुओं के लिए शाही सेवा के द्वार खोल दिये और भारमल, भगवन्तदास तथा मानसिंह को शाही सेवा में लिया।
- 1575 ई. में अकबर ने टोडरमल को दीवान (वित्तमंत्री) के पद पर नियुक्त किया। रामदास को साम्राज्य का नायब दीवान बना दिया गया।
रक्त & रक्त समूह
Budget
राजस्थान की प्रमुख झीलें
1575 ई. में इबादतखाना की स्थापना -
- अकबर ने इबादतखाना (प्रार्थना गृह) की स्थापना 1575 ई. में फतेहपुर सीकरी में की थी। इबादत खाना का अर्थ ‘पूजा का स्थान होता है परन्तु यहां पर प्रत्येक बृहस्पतिवार की संध्या को विभिन्न धर्मावलम्बियों के बीच धार्मिक विषयों पर वाद-विवाद होता था।
- अकबर ने पहले इबादत खाना केवल मुस्लिम धर्म (शेख, उलेमा) से सम्बन्धित लोगों को बुलाया। इस्लाम के मौलिक सिद्धांतों में मतभेद होने के व विभिन्न विद्वान एक-दूसरे को भला-बुरा कहने लगते थे। बाद मे सभी धर्मों के लोगों को आमन्त्रित किया। हिन्दू धर्म के पुरुषोत्तम एवं देवी को आमंत्रित किया गया। जैन मुनि हरि विजय सूरि और जिन चन्दसूरी को
- विजय सूरी को ‘जगद्गुरु’ की उपाधि प्रदान की गई।
द्वितीय चरण
- 22 जून 1579 को मजहर की घोषणाः
- मजहर का अर्थ प्रपत्र होता है। यह प्रपत्र शेख मुबारक और उनके पुत्रों फैजी ने तैयार किया था। इस महजर घोषणा के द्वारा किसी धार्मिक विषय पर वाद-विवाद की स्थिति में अकबर का आदेश सर्वोपरि होता था।
- 2 सितम्बर, 1579 ई. को प्रमुख उलेमाओं द्वारा हस्ताक्षरित एक घोषणा-पत्र जारी किया गया, जिसमें अकबर को शरा या मुस्लिम विधि-विधानों का मुख्य व्याख्याकार और निर्णायक घोषित किया गया।
- स्मिथ बूलजले हेग ने अकबर के मजहर को ‘अचूक आज्ञा पत्र की संज्ञा दी।’
- मजहर घोषणा के बाद अकबर ने सुल्तान-ए-आदिल (न्यायप्रिय सुल्तान) की उपाधि धारण की।
1582 ई. में दीन-ए-इलाही की घोषणा-
- अकबर ने 1582 ई. में ‘तौहीद-ए-इलाही’ (दैवी एकेश्वरवाद) की घोषणा की जो बाद में ‘दीन-ए-इलाही’ (ईश्वर का धर्म) के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
- ‘दीन-ए-इलाही’ किसी प्रकार का नया धर्म नहीं थ। यह वैसे व्यक्तियों का समूह था जो अकबर के विचारों से सहमत थे और उसे अपना धार्मिक गुरु मानते थे। इसकर रचना ‘सुलहकुल’ के सिद्धांत पर की गई और हिन्दू, जैन और पारसी धर्मों के कुछ प्रमुख सिद्धांत इसमें सम्मिलित किए गए थे।
- दीन-ए-इलाही धर्म को ‘तौहीद-ए-इलाही’ के नाम से भी जाना जाता था।
- दीन-ए-इलाही में रहस्यवाद, प्रकृति पूजा और दर्शन आदि शामिल थे।
- यह शांति और सहिष्णुता की नीति का समर्थन करता था।
- अकबर सबसे अधिक हिन्दू धर्म से प्रभावित हुआ। हिन्दू त्यौहारों को मनाना, तिलक लगाना, झरोखा दर्शन आदि अकबर ने हिंदू धर्म से लिए था।
- 1573 ई. में अकबर ने सूरत में पारसी पुरोहित दस्तूरजी मेहरजी राणा से भेंट की तथा उन्हें दरबार में बुलाया। पारसी धर्म के प्रभाव के अकबर ने सूर्य पूजा तथा प्रकाश पूजा प्रारंभ की तथा पारसी त्यौहारों को मनाना शुरू कर दिय।
- अकबर के समय एक पुर्तगाली मिशन 19 फरवरी, 1580 ई. में आया, जिसमें एन्टोनी मानसेरेट, रूडोल्फ अल्वेविवा तथा एनरिक्वेज थे।
- 1582 ई. में अकबर ने गुजरात से तपगच्छ के महान जैनाचार्य ‘हरिविजय सूरी’ को बुलाया और उन्हें ‘जगत गुरु’ की उपाधि दी। 1591 में खतगर गच्छ सम्प्रदाय के विद्वान ‘जिनचंद्र सूरी’ को ‘युग प्रधान’ की उपाधि प्रदान की।
- इसका प्रधान पुरोहित अबुल फजल था। इस धर्म को ग्रहण करने का दिन रविवार था।
- हिन्दुओं में केवल बीरबल ने ही इसे अपनाया था
दीन-ए-इलाही के सिद्धांत-
- अकबर ने सभी धर्मो का तुलनात्मक अध्ययन कर दीन-ए-इलाही या तकहीद-ए-इलाही अथवा दैवी एकेश्वरवाद (डिवाइन मोनोथीज्म) नामक एक धर्म की स्थापना की।
ये टॉपिक भी पढ़े
आमेर के कछवाहा
इस धर्म के मुख्य सिद्धान्त निम्नलिखित थे-
- इस धर्म के अनुसार ईश्वर एक है और उसका प्रतिनिधि अकबर है।
- प्रत्येक रविवार को अकबर अपने शिष्यों को दीक्षा देकर इस धर्म में प्रविष्ट करवाता था।
- दीक्षा प्राप्त करने वाला व्यक्ति अपनी पगड़ी एवं सिर सम्राट के चरणों में रख देता था, तब सम्राट उसे उठाकर उसकी पगड़ी उसके सिर पर रखता था और अपना स्वरूप (शिस्त) प्रदान करता था, जिस पर ‘अल्ला हो अकबर’ खुदा होता था।
- इसके सदस्य मिलने पर आपस में ‘अल्ला हो अकबर’ तथा ‘जल्ले-जलाल हू’ कहकर एक-दूसरे का अभिवादन करते थे।
- इसको मानने वालों के लिए अपने मूल धर्म का परित्याग की आवश्यकता नहीं थी।
- इसके अनुयायियों को अच्छे कार्य करने और सूर्य, प्रकाश तथा अग्नि के प्रति श्रद्धा रखने के आदेश दिये गये थे।
- उन्हें जहां तक हो सके मांस खाना वर्जित था तथा उनको कसाइयों, बहेलियों और चिड़ीमारों से मिलने-जुलने की मनाही थी।
- उन्हें अपना चरित्र पवित्र बनाए रखना आवश्यक था तथा वृद्धा, गर्भवती स्त्रियों अथवा कम उम्र की लड़कियों से यौन सम्बन्ध वर्जित था।
- हर सदस्य को अपने जन्म दिवस पर एक दावत देना और दान पुण्य करना आवश्यक था।
- इस धर्म के अनुयायियों को अपने जीवन-काल में ही मृत्यु भोज देना आवश्यक था।
- कुल मिलाकर इस धर्म के अनुयायियों से अपेक्षित था कि वे सम्राट के प्रति अपना सर्वस्व अर्पण करने को तैयार रहें तथा दान, दया एवं सात्विक जीवन एवं नैतिक आचरण पर पर्याप्त बल दें। इसके अतिरिक्त उन पर अन्य किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं था।
- ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार अकबर के अलावा, बीरबल ही मृत्यु तक दीन-ए-इलाही धर्म के अनुयायी रहे थे।
- दबेस्तान-ए-मजहब के अनुसार अकबर के पश्चात केवल 19 लोगों ने इस धर्म को अपनाया।
- ब्लॉकमैन के अनुसार इसे मानने वालों की संख्या 18 से अधिक नहीं थी।
- दीन-ए-इलाही अकबर की मृत्यु के साथ ही समाप्त हो गया।
- अकबर ने 1583 ई. में इलाही संवत् की स्थापना की।
- अकबर द्वारा चलाये गये दीन-ए -इलाही धर्म को अपनाने वाला पहला हिन्दु कौन था-
2- तानसेन
3- मानसिँह
4- कोई नही
Ans. 1
Post a Comment
0 Comments