धूल यानि डस्ट एलर्जी

  • हमारे एक मित्र को छींक आई एक नहीं पूरी 3-4 वो भी लगातार और उनका बहम सीधा धूल यानि डस्ट पर गई। हो न हो यह आपके बाहर जाने का नतीजा है और श्रीमती जी की जान को आफत बन आई। धूल से छींक यानि डस्ट एलर्जी, बड़ी विचित्र बात है। अक्सर बड़े लोगों के मुंह से सुना जाता है यार इस डस्ट से मुझे बड़ी एजर्ली है। जरासी धूल नाकों में क्या गई, बस जुकाम व छींके आना शुरू।
  • इसे कौन सच मानेगा कि हम बचपन में धूल में खेल कर बड़े हुए हैं। उठते धूल यानि हम जब जगते थे तो घर के आंगन में मां झाडू लगा रही होती थी। सांय गोधूलि की बेला में गांवों जानवरों की आवाजाही में धूल। बस बचपन ऐसे ही गुजरा था। कभी डस्ट एलर्जी नहीं हुई।
  • गांव में हमारे घर के पीछे रास्ते में एक बबूल का बड़ा पेड़ था। गर्मियों के दिनों में उस पेड़ के नीचे बड़ी ठण्ड रहा करती थी। उसके नीचे रतीली मिट्टी काफी ठण्डी रहा करती थी। बस क्या गर्मी में लू के थपेड़ों से बचने के खातिर हम उस पेड़ की छांव में उस ठण्डी मिट्टी से खेला करते थे। हमने कभी नहीं सोचा कि धूल से एलर्जी होती है।
  • दोस्तों हम उस मिट्टी से कभी बीमार नहीं हुए यहां तक कि खेल-खेल में मिट्टी एक-दूसरे के ऊपर भी डाल देते थे। वह धूल हमारी नाक में चली जाती पर कुछ नहीं होता था। पर जीना पढ़ लिखा आदमी उतना ही धूल से परहेज।
  • हम कूलर, एसी में थोड़े ही रहे जहां धूल नहीं हो, पर ये सच हैं कि हम एसी में थोड़े देर रूक जाए तो हम ठण्ड वाला जुकाम जरूर हो जाएगा। यहां हमारे लिए यही नकारात्मक पॉइन्ट है।
  • पर दोस्तों प्रकृति से परहेज कैसा। वह तो धूल के कणों पर टिकी हुई हैं, जिसे वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं। धूल से ही बादल संघनन की क्रिया से बनते हैं, इससे बादल बनने की क्रिया होती है और बारिश होती है।
  • हम एलर्जी वाले जुकाम की तौहीन नहीं कर रहे हैं बल्कि हमारी रोगप्रतिरोधक क्षमता के कमजोर होने पर बताना चाहता हूं कि हम प्रकृति के परिवेश से जितनी दूरी बनाऐंगे उतनी ही बीमारियां मानव शरीर पर अपना प्रभाव दिखाऐगी। हमें तेज धूप या धूल से नहीं डरना है। हमें हमारी प्रकृति की रक्षा के लिए घरों से बाहर खुले में आना होगा।

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