जिस पर निगाहें मेहरबान हो जाये इनकी, समझों खुदा मिल गया।
पर इन तक पहुंचना की राहें पता नहीं, वरना तो हर विकलांग तर जाये।।
यह कथन समाज सेवी संस्थाओं पर बिल्कुल सटीक बैठता है। खुद संघर्ष करके यदि सफलता मिल जाये तो उसका श्रेय लेने की कोशिश हर किसी को रहती है। यही हाल है इन समाज सेवी संस्थाओं का।
पहले से ही विकलांग और ऊपर छोटा-सा धंधा खोलने के लिए एक प्राइवेट कम्पनी से लिया लोन। दोनों ही किस्मत के मारे मनीष सिंह राजपूत के जीवन में बड़ा रोड़ा बन रहे हैं। पिता असफल व्यवसायी और भाई आरक्षण व सरकार की बदलती नीतियों का मारा। फिर भी जितनी कमाई उसी में प्रसन्न रहने वाला, कभी किसी गरीब का हक नहीं मारा और न ही जरूरत मंद को निराश लौटाया।
कभी सिगरेट, गुटखा की थड़ी करने वाले इस विकलांग में हुनर की कमी नहीं है। यह मोबाइल रिपयरिंग का मास्टर है, पर बाधा है निरंतर आने वाले पेशाब। यह कोई जन्मजात बीमारी नहीं है बल्कि मकान गिरने से रीढ़ की हड्ड़ी में आई चोट से है, जिसमें इसका नीचला हिस्सा सुन्न और पैर कमजोर हो गये। शुरू से ही खूब इलाज करवाया पर कोई संतोषजनक परिणाम नहीं मिले, अब बस दिन काट रहा है।
इसके पिता ने रोजगार के लिए जयपुर के इंदिरा गांधी नगर, जगतपुरा में हाउसिंग बोर्ड में मिले मकान के कारण परिवार के साथ यही रहने लगे। वे कुछ समय से बील्डिंग मैटेरियल की दुकान करने लगे, वे उसमें भी घटा खा गये और किसी ठेकेदार ने उन्हें 7,000 का चैक दिया तो इस विकलांग के खाते में लगाया। वो चैक बाउंस हो गया। जब वे वकील से मिले तो वकील ने हजार रुपये लिए और केस दायर किया किंतु उस वकील को यह पता ही नहीं था कि केस किसी अदालत में लगेगा। समय पर कार्रवाही न होने पर उसे कुछ नहीं मिला। कुछ समय बेरोजगार रहने के बाद किसी मोबाइल की दुकान पर काम किया पर उस जगह अब वो रौनक नहीं रहने से इसे हटा दिया गया।
हिम्मत न हारने वाले इस शख्स ने लोन लेकर जगतपुरा बस स्टैण्ड पर गुटखा, सिगरेट की थड़ी खोलने की सोची किंतु पहले से ही ठेला लगाने वालों ने उसे वहां टिकने नहीं दिया और उसे सीधा पचास हज़ार रुपये का नुकसान हो गया। उसके बाद जहां भी गया वहां उसे दुकान नहीं करने दी गई और जैसे-तैसे उसने 20,000 हज़ार रुपये खर्च कर थड़ी बनवायी उसे स्थानीय लोगों ने नहीं रखने दी। कुछ समय से वह यहीं कुन्दरपुरा रेल फाटक के पास ट्राई साइकिल पर गुटखें की दुकान लगाता था पर वहां भी कई लोग तो उस पर यह इल्जाम लगाते हैं कि तेरे जानकार यहां रात को आकर दारू पीने लगे है। न लोगों की सहानुभूति है और न ही सरकार का सहारा।
सारे जमाने को सुधारने का ठेका तो इस विकलांग का नहीं और यह किसी से यह भी नहीं कहता है कि तुम यहां आवारापन या गुण्डागर्दी करो। उसने तो कई को सुधारा भी है। इसे तो सिर्फ अपने रोजगार से मतलब और खुद एक अच्छे परिवार को लेकर चलता है। कभी किसी से कोई लड़ाई नहीं बल्कि कई लोगों को इसने सहारा दिया। इसका व्यवहारा बहुत अच्छा है यह तो उसको चाहने वाले बयां करते है।
अब देखना तो यह है कि दिव्यांगजनों की हितैषी यह सरकार कहां तक इस दिव्यांग मनीष सिंह की सुन पाती है। उसे पैसों की नहीं एक स्थिर रोज़गार की जरुरत है। देखते कितनी समाजसेवी संस्थाएं इसकी मदद करती है।
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