अंग्रेजी शासनकाल में भू-राजस्व व्यवस्था

अंग्रेजी शासनकाल में भू-राजस्व व्यवस्था 

  • भू-राजस्व पद्धति पहली बार 1762 में बर्दवान व मिदनापुर क्षेत्र में ‘इजारादारी प्रथा’ के रूप में लागू हुई। इस प्रथा में तीन वर्ष तक भूमि कर वसूलने के लिए सार्वजनिक नीलामी होती थी।
  • वॉरेन हेस्टिंग्स ने एक ‘बोर्ड ऑफ रेवन्यू’ का गठन किया था और नीलामी की अवधि 3 वर्ष से बढ़ाकर 5 वर्ष कर दी थी। 1777 में इसे बदलकर वार्षिक बना दिया गया तथा इसकी देख-रेख के लिए यूरोपीय कलेक्टर भी नियुक्त किए गए।


स्थायी बंदोबस्त

  • ब्ंगाल के गवर्नर लॉर्ड कार्नवालिस के समय 1789 में ‘सर जॉन शोर’ ने भू-राजस्व व्यवस्था का अध्ययन करके एक नई भू-राजस्व पद्धति सामने रखी। इस व्यवस्था इसे 22 मार्च, 1793 को लागू किया गया।
  • यह बंदोबस्त 1 मई, 1793 को ‘कार्नवालिस कोड’ का पहला नियम बना था।

स्थायी बंदोबस्त में निम्नलिखित प्रावधान थे-

  • जमींदारों को अपने क्षेत्र की जमीनों का स्वामित्व दे दिया गया,
  • जमींदारों से लिया जाने वाला भूमि कर स्थायी रूप से निर्धारित कर दिया गया।
  • भूमि कर का 10/11 या 9/10 भाग कंपनी को दिया जाता था, तथा 
  • जब किसी वर्ष किसी कारणवश जमींदार उक्त कर नहीं दे पाता था, तो उसकी जमींदारी छीन ली जाती थी।
  • इसके अलावा ‘स्थायी बंदोबस्त’ में जमींदारी 10 वर्ष के पट्टे पर दे दी गयी।
  • स्थायी बंदोबस्त की व्यवस्था सर्वप्रथम बंगाल, बिहार और उड़ीसा में लागू की गई। बाद में यह व्यवस्था उत्तरी मद्रास प्रेसीडेंसी में भी लागू की गई।

महालवाड़ी व्यवस्था

  • 1822 में भू-राजस्व वसूलने की एक और व्यवस्था लागू की गई, जिसे ‘महालवाड़ी व्यवस्था’ (अधिनियम -7) कहा जाता है। महालवाड़ी व्यवस्था गंगा के दोआब में पश्चिमोंत्तर प्रांत (उत्तरप्रदेश) में, मध्य भारत के कुछ भागों में तथा पंजाब में लागू की गई।
  • महालवाड़ी व्यवस्था में मालगुजारी का बंदोबस्त अलग-अलग गांवों या जागीरो (महालों) के आधार पर उन परिवारों के मुखिया के साथ किया जाता था, जो सामूहिक रूप से उस गांव या महाल का भू-स्वामी होने का दावा करते थे। 
  • इन भू-स्वामियों को ‘लम्बरदार’ कहा जाता था। इसी लम्बरदार पर अपने महाल (गांव) से भू-राजस्व वसूलने का उत्तरदायित्व था।
  • इस प्रणाली में कंपनी कुल उत्पादन का 85 प्रतिशत भू-राजस्व वसूलती थी, जिसे बाद में 95 प्रतिशत कर दिया गया।
  • इस पद्धति में भूमि का स्वामित्व कंपनी के पास था। इससे भूमि को बेचे जा सकने, गिरबी रखे जाने तथा हस्तांतरित की जा सकने वाली वस्तु बना दिया गया।
  • विलियम बैंटिक ने 1833 में अपने 9वें अधिनियम द्वारा कंपनी के लिए भू-राजस्व का 80 प्रतिशत भाग निर्धारित किया, जो अगले 30 वर्षों के लिए तय किया गया। बाद में ‘राबर्ट मार्टिन बर्ड’ ने इस भाग को बढ़ाकर 66 प्रतिशत कर दिया। 1855 में सहारनपुर के ‘कृषक विद्रोह’ के बाद यह भाग घटाकर 50 प्रतिशत कर दिया गया।

रैयतवाड़ी व्यवस्था
रैयतवाड़ी व्यवस्था

  • टॉमस मनरो और रीड की अनुशंसा के आधार पर 1820 में मद्रास प्रेसीडेन्सी में ‘रैयतवाड़ी व्यवस्था’ लागू की गई। इस प्रणाली का जन्म द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध के उपरांत 1792 में ही हो गया था। 1808 में यह पद्धति प्रायोगिक रूप में लागू की गयी। 1820 में कंपनी ने दक्षिण भारत व कर्नाटक के अनेक क्षेत्रों में इस पद्धति को लागू किया।
  • इस प्रणाली में कंपनी किसान से सीधे 33 प्रतिशत भू-राजस्व वसूलती थी।
  • इस प्रथा में कृषक (रैयत) भूमि के जिस भाग को जोतता था, उसे उसका स्वामी मान लिया जाता था, बशर्ते कि वह निश्चित समय पर भू-राजस्व चुकाता रहे। हालांकि इस प्रणाली में कृषक वास्तविक भूस्वामी न होकर एक प्रकार का बंटाईदार मात्र होता था। मालगुजारी न भरने पर किसानों की जमीनें बेंच दी जाती थी।


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