राजस्थानी मांडना चित्रण


  • मरवन मंडे मांडना निरखे चतुर सुजान
  • राजस्थानी लोक अलंकरण का सबसे विकसित और प्रचलित रूप है मांडना। मांडना का अर्थ है चित्रित करना अथवा बनाना।
  • वे समस्त आकृतियां जो दीवार अथवा जमीन पर खड़िया, गेरू, हिरमच, पेवड़ी, काजल एवं अन्य देशी रंगों के माध्यम से बनाई जाती हैं, मांडना कहलाती है। ये आकृतियां हाथ की अगुलियों अथवा कूंची से बनाई जाती है। रेखाएं, रंग-टीकियां (टपकियां) और गांठे इसके चित्रण के प्रमुख माध्यम होते हैं।
  • होली, दीवाली, दशहरा अथवा अन्य त्योहारों पर जब समस्त घरों की लीपा-पोती और सजावट की जाती है तब यहां की महिलाएं देहरी, आंगन, दीवार या आलों में मांडना की सुन्दर आकृतियां बनाती हैं। ये मांडने विविध रंगों और अलंकृत रूपों में शोभित होते हैं।
  • राजस्थानी लोक मानस की सहज झलक हमें इन मांडनों में देखने को मिलती है।
  • घरों की सुन्दरता में चार चांद लगाने वाले ये मांडने शुभ-शकुन के प्रतीक भी माने जाते हैं। इनमें गृहस्थ जीवन के सुख और समृद्धि की मंगलकारी भावना अन्तनिर्हित होती है।
  • मांडना बनाने की कला यहां की कुमारियों को अपने घर की चतुर एंव अधेड़ महिलाओं से विरासत में मिलती रहती है। इसके लिए कन्याओं या नारियों को किसी विद्यालय में शिक्षा पाने की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि घर में ही इनका चित्रण सीखकर वे अपने-अपने ढंग से इनको चित्रित करती है।
  • राजस्थानी मांडना महाराष्ट्र की ‘रंगोली’, बंगाल के अल्पना, उत्तर प्रदेश के ‘चौक पूरना’ और बिहार के ‘एपने’ आदि से केवल आंचलिक रूप से ही अलग है। साधन और श्रम की दृष्टि से ये कलाएं लगभग एक सी है। लोकरंजन और भावाभिव्यक्ति का भी इनमें कोई विशेष अन्तर नहीं हे। मांडना की अलंकृत परिकल्पनाओं का प्रचलन यहां प्राचीन काल से ही रहा है। जन जीवन में कलात्मक अभिरुचि उत्पन्न होने के साथ-साथ् ही मांडना अलंकरण की प्रथा भी चल निकली।
  • राजस्थान के मांडनों में चौक, चौपड़, संझया, श्रवण कुमार, नागों का जोड़ा, डमरू, जलेबी, फीणी, चंग, मेहन्दी, केल, बहू पसारो, बेल, दसेरो, साथिया (स्वस्तिक), पगल्या, शकरपारा, सूरज, केरी, पान, कुण्ड, बीजणी (पंखे), पंच-नारेल, चंवरछत्र, दीपक, हटड़ी, रथ, बैलगाड़ी, मोर व अन्य पशु पक्षी आदि प्रमुख है।
  • मांडने घर की सुन्दरता में वृद्धि करते हैं। वे उमंग, उत्साह, उल्लास का सृजन भी करते हैं और वातावरण को रस से भर देते हैं।
  • मांडनों की प्राचीनता स्वयंसिद्ध है। वेदों, पुराणों में हवनों और यज्ञों में वेदी और आसपास की भूमि पर हल्दी, कुमकुम आदि से विभिन्न आकृतियां बनाई जाती थी।

Post a Comment

0 Comments

Close Menu