धर्म के सम्बन्ध में भारतीय सिनेमा को ले तो एक अन्य अर्थ में ही धर्म की व्याख्या हमें देखने को मिलेगी और श्रीमद्भागवत गीता में श्रीकृष्णजी के कर्मयोग को पल्लवित करती नजर आयेगी अर्थात् धर्म केवल कर्म करते रहने तथा दैनिक कर्त्तव्यों का निर्वहन करने, पशुवृत्तियों का त्याग करने, मानव चरित्र का विकास व एक नैतिकता में जीवन व्यतीत करना मात्र प्रतीत होगा। उसमें कट्टरता लेशमात्र भी नजर नहीं आती है और मानव का सामाजिक और आर्थिक विकास सर्वोपरि होता है, क्योंकि लड़ने-झगड़ने का कार्य पशुओं का होता है।
भारतीय सिनेमा कई पहलुओं में अपनी विशिष्ट पहचान रखता है, जहां विभिन्न धर्मों के उच्च बौद्धिक एवं आर्थिक सम्पन्न लोगों के मध्य आपसी वैचारिक सामंजस्य देखने को मिलता है। साथ ही इस क्षेत्र में लोगों का व्यक्तिगत धर्म है, सामूहिक धर्म नहीं। यही नहीं इन बुद्धिजीवियों की प्रगति में धर्म कभी बाधक नहीं बना है तभी यह उद्योग बहुत फल-फूल रहा है और विश्व मानचित्र पर अपनी अलग पहचान बनाये हुए हैं। यहां कई धर्मों के कलाकार है जिनमें फिल्म निर्माता, निर्देशक, अभिनेता और खलनायक। उनमें एक अनोखी ही एकता नजर आती है। शायद यह बौद्धिक वर्ग धर्म को केवल जीवन जीने की एक कला और नैतिकता का आधार मानकर उन गलत व्यवहारों को हमेशा त्यागकर एक सुखद और सुलझा जीवन जीते हैं। उनमें धर्म के नाम पर कभी कोई वैचारिक द्वेषभाव नहीं उत्पन्न हुआ है, जोकि एक आमजन तथा महत्वाकांक्षी लोगों के बीच धर्म विवाद एवं साम्प्रदायिक रूप धारण कर लेता है।
हम आमजन जोकि विभिन्न धर्मावलम्बी हैं, को इस उच्च श्रेष्ठ बौद्धिक वर्ग से सीखना चाहिए कि हम उनकी तरह अपने धर्म को व्यक्तिगत बनाकर आपसी कलह को साम्प्रदायिक स्वरूप न दे वरन् हम धर्म को नीचा दिखाने का कार्य करेंगे। शायद आमजन को ज्ञात नहीं कि इन फिल्मी जगत की बड़ी हस्तियों को बनाने के पीछे हम आमजन का बड़ा योगदान है। हम उन्हें एक अच्छा नायक मानकर फिल्मों को बिना भेदभाव के देखते हैं, तो हमारा कर्त्तव्य बनता हैं कि हम आपसी कलह को खत्म कर धर्मों के वास्तविक रूप को ही स्वीकार करें, जो सिर्फ बुरी प्रवृत्तियों को त्यागकर दैनिक जीवन को नैतिक रूप से अच्छे से जीने की ओर प्रेरित करते हैं।
संक्षिप्त रूप में धर्म किसी पर बंधन तो देता है, मगर कट्टरता का आक्षेप नहीं लगाता यानि वह उसे कठोरता से पालन करने की ओर प्रेरित नहीं करता है। वह मानव को पशुवृत्तियों से इतर कर दैनिक जीवन को नैतिक रूप से अच्छा जीने की सलाह देता है। हम यदि सिनेमा के अभिनेता और अभिनेत्रियों को देखें तो उनका धर्म एवं व्यक्तिगत धर्म एक ही हैं, मगर उसे अपने जीवन की सफलता में वे बाधक नहीं मानते है। उनकी सोच अन्य धर्मों को सम्मान देने की है। इसी सोच के कारण उनका धर्म अभिनय है जो सिर्फ उन्हें अपनी अभिनय की क्षमता को अपने दर्शकों तक पहुंचाना है। कौन क्या कह रहा है उन्हें कोई मतलब नहीं। उनका लक्ष्य सिर्फ अपने अभिनय से दर्शकों को मोहित करना है। वे यह नहीं देखते कि मेरा धर्म यदि हिन्दू है तो मैं मुस्लमान नायक या नायिका का किरदार नहीं निभाऊंगा/निभाऊंगी या मेरा धर्म मुस्लमान है तो मैं हिन्दू नायक या नायिका का किरदार नहीं निभाऊंगा या निभाऊंगी। यानि उनकी आजीविका के मध्य धर्म कतई बाधक नहीं है। यही उनकी सफलता का कारण है कि वे धर्म को कट्टरता से अपने दैनिक जीवन का अंग नहीं बनाते हैं, बल्कि नैतिक उत्थान से अपना सुखद जीवन जीते हैं।
उनके लिए अभिनय एक धर्म से कम नहीं है क्योंकि जब वे नायक या नायिका के रूप में जिस किसी का किरदार (भूमिका) निभाते हैं, मानो वे उस धर्म के ही नायक बन, उसमें ऐसे रम जाते हैं मानो वे उस धर्म के ही हो, किन्तु ऐसा नहीं है। वे सिर्फ अपनी अभिनय कला के साथ न्याय करना चाहते है और वे इस पर खरे उतरते हैं। शायद हिन्दुस्तान का दर्शक इतना बुरा तो नहीं कि वे उस किरदार या नायक को पसन्द न करता हो। इसके कई उदाहरण मिलते हैं जो उस अभिनेता या अभिनेत्री को उस किरदार से नाम मिलता है और विभिन्न धर्मों के लोग उन्हें याद रखते है और कई तो उससे प्रेरित होकर अपने जीवन को सफल बना लेते हैं।
दिलीप कुमार, राजकपूर, प्राण, प्रेम चौपड़ा, अमिताभ बच्चन, अमजद खान, आमिर खान, अजय देवगन, शाहरूख खान, अक्षय कुमार, सलमान खान, जॉन अब्राहिम इत्यादि अनेक अभिनेताओं ने एक-दूसरे के धर्मों के अतिरिक्त विभिन्न धर्मों के किरदारों को निभाकर अपनी प्रतिभा का लोहा विभिन्न धर्मों के दर्शकों से मनवाया है तथा उन्हें सिनेमाघरों तक आने को मजबूर किया है, चाहे वे अन्य धर्मों के क्यूं न हो। क्योंकि दर्शक मनोरंजन को अपने जीवन का अभिन्न अंग मानते हैं। इसमें वह धर्मों के बंधन को शामिल न कर सिर्फ मनोरंजन पर ध्यान देता है। अमिताभ बच्चन की कुली, खुदा गवाह जैसी कई फिल्मी ने लोगों के दिलों में जगह बनाई है। विभिन्न धर्मों के लोग उनके कई धर्मों के किरदारों की तारीफ करते हैं। बजरंगी भाई जान की तारीफ लोगों की जुबां से सुनी गयी और उसके अभिनेता की तारीफ सभी धर्मों के लोगों न की है, इसमें कोई शक नहीं है क्योंकि फिल्म की सफलता ने इसे साबित किया है।
यही धर्म का वास्तविक रूप हो, हमें यह मानना चाहिए कि जिस प्रकार इन लोगों के लिए धर्म सिर्फ नैतिक उत्थान और जीवन को सुखमय बनाना माध्यम है तो फिर हम क्यों दो लोगों के आपसी कलह को साम्प्रदायिक रूप दें। बल्कि हमें अपने स्तर पर उसका निपटारा कर लेना ही न्याय संगत होगा।
आज हमारा बॉलीवुड अरबों रुपये की सम्पत्ति के साथ विश्व सिनेमा जगत में अपनी पहचान बनाये हुए हैं। इसके पीछे वही मध्यम वर्ग है जो सर्वाधिक धार्मिक कर्मकाण्डों में फंसा हुआ है। वह मध्यम वर्ग चंद महत्वाकांक्षी लोगों के स्वार्थ व उनकी अय्याशी भरी जिन्दगी के खातिर उन मासूम लोगों में नफरत का जहर घोलते हैं और फिर इससे धर्म की आढ़ में साम्प्रदायिकता फैलाते हैं।
सदियों से ग्रामीण परिवेश में रह रहे आमजन में साम्प्रदायिकता की भावना देखने को नहीं मिलती थी परन्तु अब यह धीरे-धीरे महत्त्वाकांक्षी लोगों की वजह से बढ़ रही है।
निष्कर्ष रूप में हम आमजन को भारतीय सिनेमा से सबक लेना चाहिए, क्योंकि एक छोटी सी कम्यूनिटी ने पूरा भारतवर्ष में अच्छी पहचान बना रखी है और यही संदेश दे रही है कि आप भी अपने क्षेत्र में आपसी बैर भाव त्याग कर आर्थिक उन्नति करें ताकि एक खुशहाल भारत का निर्माण कर सके। यह भी सीखें कि इस जगत में विभिन्न धर्मों तथा जातियों से व भारत के विभिन्न क्षेत्रों से आकर बसने के बाद भी के कभी सामाजिक मद्दे इनके विकास में बाधक नहीं बने।
हमें एक सुन्दर भारत बनाना है तो हमारे सिनेमा से सीखना होगा तब ही हर धर्म के सच्चे आदर्शों की सार्थकता सिद्ध हो सकती हैं अन्यथा हम गरीबी, अशिक्षा में ही जीते रहेगें। भारतीय सिनेमा के कलाकारों से हमें हैप्पी रहने की कला सीखनी चाहिए।
धर्म दौलत नहीं देता,
वरन् वह पशुवृत्तियों का त्याग और मानव का नैतिक उत्थान का मार्ग प्रशस्त करता है।
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