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प्रबन्ध
प्रबन्ध की परिभाषाएँ
प्रबन्ध की कुछ महत्वपूर्ण परिभाषाएँ इस प्रकार है-
प्रबन्ध की विशेषताएं और लक्षण:-
प्रबन्ध को विद्वानों द्वारा विभिन्न तरीके से परिभाषित किया गया है इनका विश्लेषण करने पर प्रबन्ध के निम्न लक्षण या विशेषताएँ ज्ञात होती हैं -
1. प्रबन्धक अन्य लोगों से कार्य करवाते हैं और वे स्वयं प्रबन्धकीय कार्य (नियोजन, संगठन, निर्देशन एवं नियन्त्रण) करते हें।
2. प्रबन्ध कार्य निरुद्देश्य या लक्ष्यहीन नहीं होता है। प्रबन्ध के पूर्व निर्धारित कुछ उद्देश्य होते हैं।
3. प्रबन्ध कार्य औपचारिक समूहों में सम्पन्न किया जाना सहज होता है। असंगठित व्यक्तियों के समूह केवल भीड़ होती है जिनका प्रबन्ध करना कठिन होता है।
4. प्रबन्ध एक मानवीय कार्य है। प्रबन्ध कार्य समाज के श्रेष्ठ या विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा किया जाने वाला कार्य है। ऐसे व्यक्ति (प्रबन्धक) विशिष्ट ज्ञान, अनुभव एवं अनुभूति वाले होते हैं।
5. यह एक अत्यधिक चुनौतीपूर्ण कार्य है। यह असंगठित संसाधनों का उपयोग कर उपयोगी उत्पादों/सेवाओं का उत्पादन करने में सक्षम है।
6. प्रबन्ध एक सृजनात्मक कार्य है। यह साधनों की प्रभावशीलता एवं दक्षता को बढ़ाकर अधिकाधिक उत्पादकता का सृजन करने में योगदान देता है।
7. प्रबन्ध कुछ सामान्य सिद्धान्त है। ये सिद्धान्त विभिन्न शिक्षाविदों, चिन्तकों एवं प्रबन्धकों ने गहन शोध व अनुभव के आधार पर प्रतिपादित किये है।
8. प्रबन्धक में नेतृत्व करने की क्षमता होनी आवश्यक है।
9. प्रबन्धक जो भी करता है निर्णयन द्वारा ही करता है। कभी कुछ कार्य करने के सम्बन्ध में तो कभी किसी कार्य को टालने के सम्बन्ध में निर्णय लेना ही पड़ता है।
10. प्रबन्धक दूसरों से कार्य करवाने हेतु अपने कुछ अधिकारों को अपने अधीनस्थों को सौंपते हैं। वे अधीनस्थ पुनः अपने कुछ अधिकारों को अपने अधीनस्थों को सौंपते हैं। फलतः प्रत्येक अधीनस्थ अपने अधिकारों के प्रति उत्तरदायी भी बन जाता है। इस प्रकार संस्था के प्रत्येक स्तर पर अधिकार एवं दायित्व की श्रृंखला का निर्माण हो जाता है।
11. प्रबन्ध कार्य संस्था के अन्दर व बाहर के वातावरण से प्रभावित होता है तथा उसे प्रभावित करता है। आन्तरिक वातावरण में नियोक्ता-कर्मचारी तथा संसाधन होते हैं जबकि बाह्य वातावरण में आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक तथा तकनीकी वातावरण होता है। यह सम्पूर्ण वातावरण एवं प्रबन्ध कार्य एक-दूसरे को परस्पर रूप से प्रभावित करते रहते हैं।
12. प्रबन्ध संस्था के मानवीय प्रयासों एवं भौतिक संसाधनों के समन्वय की प्रक्रिया है ताकि संस्था के उद्देश्यों, इससे सम्बन्धित सभी वर्गों की अपेक्षाओं को दक्षतापूर्ण एवं कारगर ढ़ग पूर्ण किया जा सके।
13. प्रबन्धक अपने संसाधनों की प्रभावी उत्पादकता पर ध्यान रखता है।
14. प्रबन्ध एक सार्वभौमिक क्रिया है। वह छोटे, बड़े, धार्मिक, राजनैतिक, सैनिक, सामाजिक, व्यावसायिक आदि संगठनों में की जाने वाली क्रिया है।
15. प्रबन्ध एक अदृश्य शक्ति है। इसे देखा एवं छुआ नहीं जा सकता किन्तु इसके प्रयासों के परिणाम के आधार पर इसकी उपस्थिति का स्वतः अनुमान हो जाता हे। जब संस्था में सभी कार्य सुचारू रूप से होते रहते हैं, कर्मचारी सन्तुष्ट होते हैं तथा संस्था में सौहार्दपूर्ण कार्य वातावरण होता है तब प्रबन्ध शक्ति की उपस्थिति का सहज ही अनुमान हो जाता है।
कभी-कभी इस अदृश्य शक्ति का भान इसकी अनुपस्थिति में तब होता है जबकि संस्था असफलता की ओर जाने लगती है। ऐसे समय में लोग यह कहकर इस शक्ति को स्वीकार करते हैं कि "संस्था कुप्रबन्ध ¼Mismanagement½ के कारण डूब रही है।"
- प्रबन्ध निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु नियोजन, संगठन, नियुक्ति, निर्देशन एवं नियन्त्रण की प्रक्रिया है। चूँकि प्रबन्ध का प्रयोग सर्वव्यापक एवं सार्वभौमिक है।
प्रबन्ध की कुछ महत्वपूर्ण परिभाषाएँ इस प्रकार है-
- मेरी पार्कर फोलेट के अनुसार ‘‘प्रबन्ध दूसरों से कार्य करवाने की कला है।’’
- लारैन्स एप्पले - 'अन्य व्यक्तियों के प्रयासों से परिणाम प्राप्त करना ही प्रबन्ध है।'
- हेराल्ड कुंट्ज ने लिखा, 'प्रबन्ध औपचारिक रूप से संगठित समूहों के द्वारा एवं समूहों में कार्य करवाने की कला है।'
- क्रीटनर - 'प्रबन्ध परिवर्तनशील वातावरण में दूसरों के साथ तथा दूसरों से कार्य करवाने की प्रक्रिया है। सीमित संसाधनों का प्रभावी एवं कुशलतापूर्वक उपयोग करना इस प्रक्रिया का आधार है।'
- ग्लुएक के शब्दों में, 'संस्था के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए मानवीय एवं भौतिक साधनों का प्रभावकारी उपयोग ही प्रबन्ध है।'
- वैज्ञानिक प्रबन्ध के जन्मदाता टेलर के अनुसार, 'प्रबन्ध यह जानने की कला है कि आप क्या करना चाहते हैं और तत्पश्चात् यह सुनिश्चित करना कि वह कार्य सर्वोत्तम एवं मितव्ययितापूर्ण विधि से किया जायें।'
- स्टेनले वेन्स के अनुसार, 'प्रबन्ध पूर्व निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के उद्देश्य से निर्णय लेने तथा मानवीय क्रियाओं पर नियन्त्रण करने की प्रक्रिया है।'
- प्रो. क्लग के शब्दों में, 'प्रबन्ध निर्णय करने तथा नेतृत्व प्रदान करने की कला तथा विज्ञान है।'
- मेक्फारलैण्ड - 'प्रबन्ध....वह प्रक्रिया है जिसमें प्रबन्धक समन्वित एवं सहकारी मानवीय प्रयासों की सहायता से उद्देश्यपूर्ण संगठनों का सृजन, निर्देशन, संरक्षण तथा संचालन करते हैं।'
- पीटरसन एण्ड प्लाउमैन के अनुसार- ‘प्रबन्ध का अर्थ उस तकनीेक से है, जिसके द्वारा एक विशिष्ट ज्ञान एवं मानव समुदाय के उद्देश्यों का निर्धारण, स्पष्टीकरण एवं क्रियान्वयन किया जाता है।’
- थिरोफ, क्लेकैम्प एवं ग्रीडिग के शब्दों में-'प्रबन्ध नियोजन, संगठन, निर्देशन एवं नियंत्रण द्वारा संस्था के संसाधनों के आवंटन की प्रक्रिया है, ताकि ग्राहकों की इच्छित वस्तुओं व सेवाओं का उत्पादन कर, संस्था के उद्देश्यों को पूरा किया जा सकें। इस प्रक्रिया में कार्य का निष्पादन प्रतिदिन परिवर्तनशील व्यावसायिक वातावरण में संगठन के कर्मचारियों के द्वारा किया जाता है।'
- वीहरिच तथा कुइंज - 'प्रबन्ध एक ऐसे वातावरण का निर्माण करने तथा उसे बनाये रखने की प्रक्रिया है जिसमें लोग समूह में कार्य करते हुए चयनित उद्देश्यों को दक्षतापूर्वक पूरा करते हैं।'
- लुईस ए. एलन के शब्दों में - 'प्रबन्ध व्यवस्थित ज्ञान का समूह है जो व्यावसायिक पेशे के सन्दर्भ में प्रमापित सामान्य प्रबन्ध के कुछ सिद्धान्तों पर आधारित है।'
- निष्कर्ष: उपरोक्त आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रबन्ध एक कला एवं विज्ञान है जो अन्य व्यक्तियों से कार्य करवाने, लागतों को कम करने, मानवीय प्रयासों की सहायता से संस्था के उद्देश्यों की प्राप्ति में नियोजन से लेकर नियंत्रण तक समग्र क्रियाओं में निहित है।
प्रबन्ध की विशेषताएं और लक्षण:-
प्रबन्ध को विद्वानों द्वारा विभिन्न तरीके से परिभाषित किया गया है इनका विश्लेषण करने पर प्रबन्ध के निम्न लक्षण या विशेषताएँ ज्ञात होती हैं -
1. प्रबन्धक अन्य लोगों से कार्य करवाते हैं और वे स्वयं प्रबन्धकीय कार्य (नियोजन, संगठन, निर्देशन एवं नियन्त्रण) करते हें।
2. प्रबन्ध कार्य निरुद्देश्य या लक्ष्यहीन नहीं होता है। प्रबन्ध के पूर्व निर्धारित कुछ उद्देश्य होते हैं।
3. प्रबन्ध कार्य औपचारिक समूहों में सम्पन्न किया जाना सहज होता है। असंगठित व्यक्तियों के समूह केवल भीड़ होती है जिनका प्रबन्ध करना कठिन होता है।
4. प्रबन्ध एक मानवीय कार्य है। प्रबन्ध कार्य समाज के श्रेष्ठ या विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा किया जाने वाला कार्य है। ऐसे व्यक्ति (प्रबन्धक) विशिष्ट ज्ञान, अनुभव एवं अनुभूति वाले होते हैं।
5. यह एक अत्यधिक चुनौतीपूर्ण कार्य है। यह असंगठित संसाधनों का उपयोग कर उपयोगी उत्पादों/सेवाओं का उत्पादन करने में सक्षम है।
6. प्रबन्ध एक सृजनात्मक कार्य है। यह साधनों की प्रभावशीलता एवं दक्षता को बढ़ाकर अधिकाधिक उत्पादकता का सृजन करने में योगदान देता है।
7. प्रबन्ध कुछ सामान्य सिद्धान्त है। ये सिद्धान्त विभिन्न शिक्षाविदों, चिन्तकों एवं प्रबन्धकों ने गहन शोध व अनुभव के आधार पर प्रतिपादित किये है।
8. प्रबन्धक में नेतृत्व करने की क्षमता होनी आवश्यक है।
9. प्रबन्धक जो भी करता है निर्णयन द्वारा ही करता है। कभी कुछ कार्य करने के सम्बन्ध में तो कभी किसी कार्य को टालने के सम्बन्ध में निर्णय लेना ही पड़ता है।
10. प्रबन्धक दूसरों से कार्य करवाने हेतु अपने कुछ अधिकारों को अपने अधीनस्थों को सौंपते हैं। वे अधीनस्थ पुनः अपने कुछ अधिकारों को अपने अधीनस्थों को सौंपते हैं। फलतः प्रत्येक अधीनस्थ अपने अधिकारों के प्रति उत्तरदायी भी बन जाता है। इस प्रकार संस्था के प्रत्येक स्तर पर अधिकार एवं दायित्व की श्रृंखला का निर्माण हो जाता है।
11. प्रबन्ध कार्य संस्था के अन्दर व बाहर के वातावरण से प्रभावित होता है तथा उसे प्रभावित करता है। आन्तरिक वातावरण में नियोक्ता-कर्मचारी तथा संसाधन होते हैं जबकि बाह्य वातावरण में आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक तथा तकनीकी वातावरण होता है। यह सम्पूर्ण वातावरण एवं प्रबन्ध कार्य एक-दूसरे को परस्पर रूप से प्रभावित करते रहते हैं।
12. प्रबन्ध संस्था के मानवीय प्रयासों एवं भौतिक संसाधनों के समन्वय की प्रक्रिया है ताकि संस्था के उद्देश्यों, इससे सम्बन्धित सभी वर्गों की अपेक्षाओं को दक्षतापूर्ण एवं कारगर ढ़ग पूर्ण किया जा सके।
13. प्रबन्धक अपने संसाधनों की प्रभावी उत्पादकता पर ध्यान रखता है।
14. प्रबन्ध एक सार्वभौमिक क्रिया है। वह छोटे, बड़े, धार्मिक, राजनैतिक, सैनिक, सामाजिक, व्यावसायिक आदि संगठनों में की जाने वाली क्रिया है।
15. प्रबन्ध एक अदृश्य शक्ति है। इसे देखा एवं छुआ नहीं जा सकता किन्तु इसके प्रयासों के परिणाम के आधार पर इसकी उपस्थिति का स्वतः अनुमान हो जाता हे। जब संस्था में सभी कार्य सुचारू रूप से होते रहते हैं, कर्मचारी सन्तुष्ट होते हैं तथा संस्था में सौहार्दपूर्ण कार्य वातावरण होता है तब प्रबन्ध शक्ति की उपस्थिति का सहज ही अनुमान हो जाता है।
कभी-कभी इस अदृश्य शक्ति का भान इसकी अनुपस्थिति में तब होता है जबकि संस्था असफलता की ओर जाने लगती है। ऐसे समय में लोग यह कहकर इस शक्ति को स्वीकार करते हैं कि "संस्था कुप्रबन्ध ¼Mismanagement½ के कारण डूब रही है।"
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