चोलकालीन स्थापत्यकला

चोलकालीन स्थापत्यकला: वृहदीश्वर मन्दिर
चोलकालीन मंदिर
स्थापत्यकला -

  • चोलों के शासन काल में स्थापत्यकला के क्षेत्र में अत्यधिक उन्नति हुई। चोल सम्राटों ने अनेक भव्य एवं विशाल मंदिरों का निर्माण करवाया। चोलों ने मन्दिरों के निर्माण के लिए प्रस्तर खण्ड़ों और शिलाओं का प्रयोग किया। इन मन्दिरों का आकार बहुत विशाल है।
  • चोलकालीन मन्दिरों में कोरंगनाथ का मन्दिर, तंजौर का वृहदीश्वर मन्दिर या ‘राज राजेश्वर मंदिर’ आदि चोल स्थापत्यकला के उत्कृष्ट नमूने हैं। तंजौर के वृहदीश्वर मन्दिर का निर्माण चोल नरेश राजराज प्रथम ने करवाया था। 
  • इसका आयताकार विशाल प्रांगण 160 मीटर लम्बा तथा 80 मीटर  चौड़ा है। इस मंदिर के चार भाग हैं - 1. गर्भगह, 2. मण्डप, 3. अर्द्धमण्डप और 4. बहिर्भाग।
  • दूसरे भाग में लगभग 60 मीटर ऊंचा विमान है। इसे मन्दिर का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग शिखर है। शिखर के शीर्ष पर 7.5 मीटर ऊंचा शीर्ष विमान अवस्थित है। मन्दिर के गर्भगृह में विशाल शिवलिंगम है जिसे वृहदीश्वर कहा जाता है। सम्पूर्ण मन्दिर मूर्तियों एवं शिल्प अंलकरणों से अलंकृत किया गया है।
  • इसक शिखर बहुत ही ऊंचा और शंकु की आकृति का है। इसके गुम्बजाकार कलश पर त्रिशूल स्थित है। शिखर के चारों कोणों पर नंदी की मूर्तियां हैं। इस मन्दिर में बड़े परकोटे हैं जिनमें चारों ओर बड़े ही भव्य और विशाल गोपुरम बने हुए है। यहां नटराज शिव की विशाल मूर्ति उत्कीर्ण है जो अत्यन्त कलात्मक एवं चित्ताकर्षक है। इस प्रतिमा में कला, धर्म व दर्शन का अद्भूत सामंजस्य है। इस प्रकार आकार, स्थायित्व, मूर्ति शिल्प एवं अलंकरण की दृष्टि से यह मन्दिर सम्पूर्ण दक्षिण भारतीय मन्दिर समूह में सर्वश्रेष्ठ है।
  • कला की दृष्टि से वृहदीश्वर का मन्दिर उच्च कोटि का है। द्रविड़ शैली के मन्दिरों में सम्भवतः यह सर्वश्रेष्ठ है। 
  • डॉ. नीलकण्ठ शास्त्री के अनुसार ‘इसमें कोई सन्देह नहीं कि जंतौर का ‘विमान’ द्रविड़ कलाकारों की सबसे सुन्दर कलाकृति है।’

कोरंगनाथ का मन्दिर -

  • कोरंगनाथ का मन्दिर भी चोलकालीन स्थापत्यकला का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। इस मन्दिर की कुल लम्बाई 50 फीट है। इसमें 25’गुणा 25’ का गर्भगृह तथा 25’गुणा 20’ का मण्डप है। गर्भगृह के ऊपर 20 फीट ऊंचा शिखर है। 
  • विमान पर अनेक मूर्तियां उत्कीर्ण हैं जिनमें सबसे प्रसिद्ध मूर्ति काली की है। इसके एक ओर सरस्वती की और दूसरी ओर लक्ष्मी की मूर्ति है। इस मन्दिर में चोल वास्तुकला तथा मूर्तिकला दोनों का भव्य प्रदर्शन है। इसके दक्षिणी दीवार के केन्द्रीय भाग पर एक सुन्दर दृश्य है, जिसमें काली अथवा दक्षिणी देवी के बाई ओर सरस्वती तथा दायीं और लक्ष्मी, अधोभाग में एक असुर तथा चारों ओर अनेक गण देवताओं की मूर्तियां बनी हैं।

गंगैकोंड-चोलपुरम का मन्दिर -

  • इस मन्दिर का निर्माण राजेन्द्र प्रथम के शासन काल में हुआ था। यह मन्दिर आयताकार है जिसकी भुजाएं 340’गुणा 100’ हैं। इसका शिखर 150 फीट ऊंचा है। 
  • इसे गर्भगृह, अन्तराल, मण्डप, अर्द्धमण्डप तथा बाहरी भाग आदि भागों में बांटा जा सकता है। इसका मण्डप 175 फीट लम्बा तथा 95 फीट चौड़ा है। 
  • मन्दिर का विमान 160 फीट ऊंचा है। विमान का आकार पिरामिड का है। इसमें आठ मंजिलें हैं। गर्भगृह वर्गाकार है जिसकी प्रत्येक भुजा 100 फीट की है।
  • इसके सभा-मण्डप में 150 स्तम्भ है। इसके विमान की जगती की बाहरी दीवारों पर शिवनटराज, गणेश, शिव, चंडी-केश-अनुग्रह मूर्ति आदि आकर्षक हैं। इस मन्दिर की सर्वश्रेष्ठ कृति ‘चण्डेशानुग्रह’ है। यह तत्कालीन चोल काल की प्रस्तर मूर्तियों में उत्कृष्टतम है। यहां मन्दिर भी चोल स्थापत्य कला का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
चिदम्बरम का नटराज मन्दिर -
  • ‘चिदम्बरम का नटराज मन्दिर’ चोल शासन काल एक अन्य महत्त्वपूर्ण मन्दिर है। यह मन्दिर तमिलनाडु के अर्काट जिले में स्थित है। 
  • इसके मुख्य मण्डप में 1000 स्तम्भों की पंक्तियां हैं। 
  • मन्दिर का प्रांगण विशाल है तथा इसमें चार गोपुरम (द्वार) है। इन गोपुरम की रथिकाओं में शिव की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं जो बड़ी सुन्दर एंव कलात्मक हैं। 

दारासुख का एरातेश्वर मन्दिर -

  • इस मन्दिर का निर्माण राजराज द्वितीय के शासनकाल में किया गया था। 
  • इसका अग्रमण्डप में अलंकृत स्तम्भों के आधार पर महामण्डप के सामने बना है। मडप पहियेदार रथ के समान है, जिसे हाथी द्वारा खींचा जाता हुआ दिखाया गया है। 
  • विमान का शिखर पंचतल है, जिसका प्राकार ऊपर की ओर घटता गया है। मन्दिर की बाहरी दीवारों की ताख पर अनेक मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। यह मन्दिर भी चोलकालीन वास्तुकला तथा मूर्तिकला का एक श्रेष्ठ नमूना है।

कम्पहरेश्वर मन्दिर -

  • इसे त्रिभुवनेश्वर मन्दिर भी कहा जाता है। 
  • इसका निर्माण चोल शासक कुलोत्तुंग तृतीय के समय किया गया था। 
  • इसका विमान पिरामिडाकार 6 तलों में बना है। ग्रीवा गोल तथा शिखर गुम्बदाकार है। 
  • यह मन्दिर अलंकरण-विधान की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यहां बड़ी संख्या में मूर्तियां उत्कीर्ण हैं।


Post a Comment

0 Comments