Indian History
चोलकालीन प्रशासन, सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था
- केन्द्रीय प्रशासन में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण राजा होता था। शासन का स्वरूप राजतंत्रात्मक था।
- सार्वजनिक प्रशासन में राजा जो मौखिक आदेश देता था वो ‘तिरूवाय केल्बि’ कहलाते थे।
- राजा की उपाधियां - चक्रवर्तिगुल और त्रिलोक सम्राट
- उत्तराधिकार का नियम - ज्येष्ठता के आधार पर चुना जाता था।
- चोल प्रशासन में उपराजा के पद पर हमेशा राजकुमारी को नियुक्त किया जाता था।
सरकारी अधिकारी दो वर्गों में विभक्त थे -
- पेरून्दनम् - उच्च (ऊपरी) श्रेणी
- शिरूंदनम् - निम्नस्थ श्रेणी
- सरकारी पद वंशानुगत होते थे।
- राजा के व्यक्तिगत अंगरक्षकों को वेडैक्कार कहलाते थे।
- सेना के बड़े अधिकारियों को तीन भागों में बांटा गया था - नायक, सेनापति और महादण्डनायक
- अधिकारियों को उनको वेतन के रूप में जमीन दी जाती थी।
- उडनकूट्टम - राज्य के उच्च अधिकारियों या मंत्रियों को
मुख्य अधिकारी -
- औलेनायकम् - प्रधान सचिव
- तिरून्दनम् - एक प्रधान कर्मचारी
- विडैयाधिकारिन - कार्य प्रेषक किरानी
प्रशासनिक विभाग -
- प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से चोल साम्राज्य 6 प्रांतों में विभक्त था। जिन्हें मण्डलम् कहते थे।
- इस विभाजन का अवरोही क्रम निम्नप्रकार से था -राज्यमण्डलम् (प्रांत) - प्रांतों का प्रशासन राजघराने से सम्बन्धित व्यक्ति को दिया जाता था।वलनाडु (ज़िला)नाडु,कुर्रम् (गांव)
- तनियूर या तंकुरम् - बड़े-बड़े शहर या गांव स्वयं एक अलग कुर्रम बन जाते थे। जो तंकुरम कहलाते थे।
- मण्डल प्रशासन से ग्राम प्रशासन तक शासकीय कार्यों में सहायतार्थ के लिए स्थानीय सभाएं होती थीं।
- नाडु की स्थानीय सभा ‘नट्टार’ कहलाती थी।
- व्यापारिक संघ की सभा को नगरम् या नगरट्टार कहलाती थी।
चोलकालीन राजस्व व्यवस्था
- राज्य की आय का मुख्य स्रोत भूमिकर था जिसकी वसूली ग्राम सभाओं द्वारा की जाती थी।
- इसकी दर कृषि उत्पादन का एक तिहाई थी।
- कृषि भूमि तथा भूराजस्व का उपज के अनुसार समय-समय पर पुनर्निर्धारण का उल्लेख।
- भूमि की नाप और सर्वेक्षण - सबसे पहले राजराज ने करवाया बाद में कुलोत्तुंग ने
- उपज के अनुसार भूमि को 12 कोटियों में विभाजित किया
- सीमा शुल्क, राहदारी अनेक व्यवसाय तथा धन्धों पर लगाए गये करों से राज्य की आमदनी होती थी। खानों एवं जंगलों के उत्पादन के अतिरिक्त नमक कर से भी राजस्व प्राप्त होता था।
- विवाह समारोह पर भी कर लगता था।
- अभिलेखों में करों व वसूलियों के लिए प्रयुक्त शब्द हरै या वरि, मन्रूपाडु और दण्डम् थे।
प्रत्येक नगर व गांव में कर मुक्त भू क्षेत्र -
- हस्तशिल्पकार एवं कारीगरों के आवास स्थान
- चाण्डालों की बस्तियां
- मंदिर, तालाब, नहरें और श्मशान भूमि।
- अन्न का मान - एक कलम (तीन मन) था।
- काशु - सोने के सिक्के को कहा जाता था।
- वेलि - भूमिमाप की इकाई थी।
- करों की वसूली व केन्द्रीय कोष में जमा कराने की
- वरित्पोत्तराक्क - राजस्व विभाग का प्रमुख अधिकारी
- नगरों में कर संग्रह का उत्तदायित्व - नगरम् समिति के अधीन
- कार्य (नगरम् का) - विभिन्न प्रकार के बिक्री करों व शिल्पकारों को वसूल करके केन्द्रीय कोष में जमा करना।
- चोल नरेश - केन्द्रीय राजस्व का उपयोग विशेषकर विशाल मंदिरों के निर्माण व बंदरगाहों तथा समुद्री जहाजी बेड़ों के विकास पर खर्च अधिक खर्च करते थे।
इसके अतिरिक्त -
- राजस्व का बहुत बड़ा हिस्सा - राजकीय दानों में, यज्ञों, विभिन्न महोत्सवों पर खर्च।
चोल अभिलेखों में प्रमुख वर्णित कर -
- आयाम - राजस्वकर
- मर्मज्जाडि - उपयोगी वृक्षकर
- कडमै - सुपारी के बागान पर कर
- मनैइरै - गृहकर
- कठैइरै - व्यापारिक प्रतिष्ठान कर
- पेविर - तेलघानी कर
- किडाक्काशु - नर व पशुधन कर
- कडमै - लगान
चोलकालीन सैन्य संगठन व समाज
- चोल सेना के तीन प्रमुख अंग- पदाति, गजारोही और अश्वरोही।
- मनरूकैमहासनै - चोलों की अश्वसेना में
- अश्वों का अरब व खाड़ी देशों से आयात किया जाता था।
- सेना की विभिन्न टुकड़ियां - कडगम में रहती थी
- राजा सैन्य संगठन का प्रधान था। युद्धकाल में सेना का नेतृत्व भी करता था।
- नायक - सेना की टुकड़ियों का प्रमुख
- महादण्डनायक/सेनापति - सेना या प्रधान सेनापति
थल सेना के मुख्य अंग -
- धनुर्धरों को - विल्लिगल
- गजारोही - कुजिरमल्लर
- घुड़सवार - कुडिरैच्चेनगर
- पैदल सेना - बडपेई कैक्कोलर
- न्याय समितियां - न्यायातर
- ब्रह्माधिराज - सेना के ब्राह्मण सेनापति
चोलकालीन समाज -
- तमिल क्षेत्र के प्रारंभिक ऐतिहासिक काल में वर्ण व्यवस्ािा का अभाव था।
- चोल कालीन समाज दो वर्णों में विभाजित - ब्राह्मण और गैर ब्राह्मण (सबसे महत्वपूर्ण शूद्र )
चोल काल में औद्योगिक वर्गीय समूह -
- दक्षिण वर्गीय (वलंगई) और वामवर्गीय (इडंगई)
- दक्षिण वर्गीय (वलंगई) मुख्यतः कृषक व श्रमिक जातियां
- वामवर्गीय (इडंगई) - मुख्यतः हस्तशिल्पकारों व दस्तकारों की जातियां
- चोल काल में इड़ंगई की अपेक्षा बेलंगई अधिक अधिकार युक्त थे। इनका दरबार व सेना में अधिक।
- इड़ंगई लोग - अपनी आजीविका का स्रोत व्यापार तथा दस्तकारी द्वारा चलाते थे।
चोल समाज में -
- क्षत्रिय व वैश्य वर्ग का न होना महत्त्वपूर्ण
- परैया - चोल समाज के अछूत
- वेल्लाल - शूद्र कृषक थे।
- रथराज (नया वर्ग) - इनकी उत्पत्ति उच्चवर्ग के पुरूष व निम्न वर्ग की महिलाओं के संयोग से
- स्त्री स्थिति - उत्तर भारत से बेहतर
- देवदासी प्रथा का प्रचलित थी
- दास प्रथा का प्रमाण मिलते है।
चोलकालीन स्थानीय स्वशासन -
- चोल कालीन स्थानीय स्वशासन की जानकारी चोल सम्राट परांतक के 12वें व 14वें वर्ष के उत्तमेरूर अभिलेखों से मिलता है।
- चोल सम्राट - स्थानीय प्रशासन व्यवस्था (समिति प्रणाली/वारियम) को लागू किया।
- चोल अभिलेखों में तीन प्रकार की - ग्राम सभाओं का उल्लेख - उर, सभा/महासभा और नगरम्
- उर - सर्वसाधारण लोगों की ग्राम सभा
- इसमें ग्राम, पुर/नगर सम्मिलित थे।
- शाब्दिक अर्थ - पुर
- उर की कार्यकारिणी समिति को ‘आलुंगणम्’ कहते है।
सभा/महासभा -
- गांवों के वरिष्ठ ब्राह्मणों (अग्रहार) की सभा।
- मूल रूप से अग्रहारों अथवा ब्राह्मण बस्तियों की संस्था थी।
- गांवों के कारोबार की देखरेख - वारियम कार्य कारिणी समिति
‘वारियम’ की अर्हता-
- सदस्यता के लिए 35 से 70 वर्ष तक की उम्र वाले व्यक्ति का नामांकन
- 1.5 एकड़ भूमि हो।
- अपनी भूमि पर बने मकान में रहता हो।
- वैदिक मंत्रों का ज्ञाता हो।
नोट -
- महासभा को - पेरूंगर्रि कहते
- सदस्यों को पेरूमक्कल कहते
- समिति के सदस्यों को वारियप्पेरूमक्कल कहते हैं
- सार्वजनिक भूमि पर महासभा का स्वामित्व होता
- गांव हित में महासभा करारोपण भी करती थी।
- वारियम के सदस्यों की कार्य अवधि 3 वर्ष
- इसके सदस्यों के लिए नियम ग्राम सभा द्वारा निर्धारित किंतु कभी-कभी सम्राट द्वारा भी।
- निर्वाचन का तरीका - समिति सदस्यों को चुनने हेतु
- प्रत्येक गांव 30 वार्डों में बांटा गया।
- हर गांव से एक व्यक्ति का चुनाव लॉटरी द्वारा
- वारियम - 30 सदस्य
- जिनमें से 12 बुजुर्ग/विद्वान - सम्बत्सरवारियम (वार्षिक समिति)
- 12 सदस्य - तोट्टवारियम (उद्यान समिति)
- 6 सदस्य - येरिवारियम (मनोनीत)
नगरम्-
- व्यापारी समुदाय की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रशासकीय सभा
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