हां मैं नाकामयाब हूं


हां मैं नाकामयाब हूं
होऊं भी क्यों नहीं,
सब तो उनके ही हाथ थामते हैं जो कामयाब होते हैं,
मेरी काबिलियत तो गुलामों की तरह है।
जो आज अपना तन-मन देकर भी,
 विश्वास जीत न पायी उनका,
और वजूद के लिए लड़ रही है।

और लोग उन्हें ही कामयाब बोलते हैं,
जिनको हर वह साथ मिला बचपन से,
जो उनने चाहा,
मुझे तो संघर्ष करना पड़ा तब से,
जब से याद संभाली है।
पिताजी किसान के बेटे, कम पढ़े-लिखे,
और बराबरी सामंतवादी सोच से करने चले।

डॉक्टर बनाने की सोची,
पर जब पता चला वहां तो रिपीटर पर रिपीटर,
और बहुत तो तीन साल से फाउंडेशन कोर्स कर रहे थे।
हमारा हौंसला पस्त हो गया,
और हम नाकामयाब हो गये।

किसी दोष दें ?
उन्हें जिन्होंने राजाशाही सुखभोगा।
या आज के अधिकारियों की चाटुकारिता को,
या उनको जो सब कुछ अपने अधीन करना चाहते हैं,
बिजनेस के माध्यम से,
आज हम खुद का व्यवसाय भी नहीं कर सकते,
क्योंकि सिकन्दर बढ़ चला विश्व विजय के वास्ते,
उसे क्या पता युद्ध की वेदी पर कितने मासूम शहीद हुए।

वह तो यही सोचता था,
इन्हें शक्ति के बल पर जीता है और गुलाम है,
ये जन थोड़े ही मेरे,
ये तो दूसरी नस्ल के मानव है,
और शायद सच था,
उस समय के नजरिये से।

आज भी तो ऐसा होता है,
बड़े व्यवसायी को तो ऐसा ही महसूस होता है।
उसका व्यवसाय सही दिशा में है,
छोटों का क्या वे मेरे यहां रोजगार पा लेंगे।
और कुछ उसके फौजदार बन कर,
वही रंगत बोलेंगे जो पूर्व काल में सामंत बोलता था,
तनख्वाह वही पेट तो पल जायेगा।

ऐसा ही बिजनस का उसूल है,
जो अपने निजी क्षेत्र में लोगों को रोजगार दे रहा था,
आज वही खुद बेरोजगार है,
और जो वक्त के साथ चले, 
वे ही जीत के हकदार है।
देखा नहीं एक वंश की टेलीकॉम कम्पनी ने,
दूजे को हजारों करोड़ का नुकसान पहुंचा दिया।
और कर्मचारी बेघर हुए उसका क्या?
यह प्रश्न बड़ा है,
क्योंकि अब नर पहले की तरह प्रतिस्पर्धा करने लगा है।

पर यह प्रतिस्पर्धा हर जन में,
पर बड़ों में हो तो,
महायुद्धों की सी आहट सुनता हूं,
और प्रतिपल शंकित रहता हूं।

कामयाब होकर बस यही कहना था,
जियो और जिने दो में सारा छुपा जीवन का,
जिस खुशी तुम ढूंढते हो,
वह वसुधैव कुटुम्बकम में है।
यही सार जीवन में शांति का है।

वरना भविष्य के गर्भ में कभी शांति नहीं है,
जो है हमारे पास वो क्या कम है,
बस कमी है तो एक-दूजे को समझने की।

कवि-
राकेश सिंह राजपूत




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