Indian History
सुरेन्द्र नाथ बनर्जी
- ‘स्वतंत्रता का मोर्चा एक दिन में सर नहीं होता। स्वतंत्रता की देवी बहुत कठिनता से प्रसन्न होती है। वह अपने भक्तों से त्याग और तपस्या मांगती है। आप इतिहास को पढ़िए और उससे यह पाठ सीखिए कि स्वतन्त्रता के लिए होने वाले वैधानिक संघर्ष मं धैर्य, साहस तथा आत्म-बलिदान की आवश्यकता होती है।’ सुरेन्द्रनाथ बनर्जी
- सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का जीवन और कार्य भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का एक अभिन्न अंग था।
- श्री बनर्जी एक प्रभावशाली शिक्षक और राजनीतिक वक्ता थे जिन्होंने सांविधानिक आन्दोलन की आवाज भारत के जनमानस तक पहुंचाई
- हैनरी कॉटन के शब्दों में ‘वे अपनी वाणी के के कौशल से मुल्तान से लेकर चटगांव तक विद्रोह की आग भड़का सकते थे, बुझा सकते थे।’
- उनका सदैव यह आग्रह रहा कि राजनीति में उच्च नैतिक सिद्धांतों का यह अनुसरण किया जाना चाहिए।
- इस दृष्टि से उनकी तुलना सिसरो, बर्क और ग्लैडस्टन से की जा सकती है।
जीवन परिचय -
- सुरेन्द्र नाथ बनर्जी (1848-1925) का जन्म कलकत्ता के एक कुलीन परिवार में हुआ और उनके पिता बाबू दुर्गाचरण बनर्जी ने अपने पुत्र की शिक्षा में कोई कसर न रखी। बनर्जी ने 1869 में लन्दन से भारतीय सिविल सर्विस की परीक्षा पास की और दिसम्बर, 1871 में सहायक मजिस्ट्रेट के पद पर सिलहट में उनकी नियुक्ति हो गई। लेकिन अंग्रेज नौकरशाही यह बर्दाश्त नहीं कर सकी कि भारतीय आई. सी. एस. के दर्जे पर काम करें, अतः बनर्जी के विरुद्ध कुछ निराधार आरोप गढ़े गए और 1873 में मामूली-सी पेंशन देकर उन्हें पद-मुक्त कर दिया गया।
- बनर्जी ने, अपना मामला लड़ने और ब्रिटिश लोकमत को न्याय के पक्ष में झुकाने के लिए इंग्लैण्ड तक दौड़ धूप की, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला।
- ब्रिटिश सरकार के अन्यायपूर्ण रवैये से श्री बनर्जी को गहरा सदमा पहुंचा। उन्होंने महसूस किया कि इतना अपमान और अन्याय उन्हें इसलिए सहना पड़ रहा है कि वे गुलाम भारतीय है।
- ब्रिटिश शासन के प्रति उदारवादी और श्रद्धापूर्ण रहते हुए भी उन्होंने यह समझ लिया कि भारतीयों का पुनर्जागरण आवश्यक है और ऐसी परिस्थितियां प्रस्तुत होनी चाहिए जिनमें शासन में भारतीयों का आवाज अवश्य हो।
- उनका पहला प्रमुख सार्वजनिक कार्य था - मद्यपान का विरोध करना।
- 1876 में वे ‘मेट्रोपोलिटन इन्स्टीट्यूशन’ में अंग्रेजी के प्राध्यापक बने।
- 26 जुलाई, 1876 ई. को अपने मित्रों के सहयोग से उन्होंने ‘इण्डियन एसोसिएशन’ नामक संस्था की कलकत्ता में स्थापना की।
संस्था का मूल उद्देश्य था -
- देशवासियों को अखिल भारतीय स्तर पर संगठित कना। संस्था चाहती थी कि देश में एक सुदृढ़ जनमत तैयार किया जाए, सामान्य हितों के आधार पर विभिन्न जातियों को संगठित किया जाए, हिन्दू और मुसलमानों में परस्पर सहानुभूतिपूर्ण सम्बन्धों का विकास किया जाए, सार्वजनिक आन्दोलन में जन साधारण को शामिल किया जाए और भारत में प्रतिनिधि सरकार के आरम्भ के लिए आन्दोलन छेड़ा जाए।
- बनर्जी की प्रेरणा से यह संस्था वैधानिक आन्दोलन के सिद्धांत और व्यवहार के प्रचार का प्रमुख अंग बन गई। इसीलिए बनर्जी को ‘सांविधानिक आन्दोलन का दूत’ कहा गया।
- ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीय सिविल सर्विस परीक्षा के लिए अधिकतम आयु 21 वर्ष से घटाकर 19 वर्ष कर देने पर, बनर्जी ने 'इण्डियन एसोसिएशन' की पृष्ठभूमि में रहकर, राष्ट्रव्यापी आन्दोलन चलाया।
- उन्होंने अपने ओजस्वी भाषणों से सोती हुई भारतीय जनता को जगाया तथा सांविधानिक संघर्ष का मार्ग प्रशस्त कर दिया।
- वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट और आर्म्स एक्ट के प्रति विरोध प्रदर्शित करने के लिए समाचार-पत्र की आवश्यकता अनुभव करते हुए ‘बंगाली’ पत्र का सम्पादन शुरू किया और कुछ ही वर्षों में इसे एक प्रथम श्रेणी का पत्र बना दिया।
- 1909 में उन्होंने इंग्लैण्ड में भारतीय प्रेस के प्रतिनिधि के रूप में प्रेस की स्वतंत्रता का बड़ी दृढ़ता से बचाव किया।
- 1876 में उन्हें कलकत्ता कॉरपोरेशन का सदस्य चुना गया। वे कॉरपोरेशन में निरन्तर 23 वर्ष तक अर्थात् 1899 तक बने रहे।
- उन्होंने दो बार कांग्रेस के सभापति पद को सुशोभित किया - पहली बार 1895 में पूना में और दूसरी बार 1902 ई. में अहमदाबाद में।
- 1893 ई. में बंगाल विधान परिषद् के लिए निर्वाचित होने वाले वे प्रथम गैर-सरकारी हिन्दुस्तानी थे और 1901 तक लगातार 8 वर्षों तक वे परिषद् के सदस्य रहे।
- 1919 में ‘भारत शासन अधिनियम’ के अन्तर्गत उन्होंने एक मंत्री के रूप में कार्य किया और कुछ सुधार लागू किए।
- बनर्जी शिक्षा, राजनीति, व्यवस्थापन, पत्रकारिता आदि विभिन्न क्षेत्रों में अद्भुत रूप से सफल हुए। अपने तर्कपूर्ण भाषणों के कारण ही उन्हें ‘भारतीय ग्लैडस्टन’ कहा गया।
- उन्होंने सिक्खों की वीरता, उनके स्वतंत्रता संग्राम और अपने उद्देश्यों के प्रति पूर्ण समर्पण के उन तथ्यों का उद्घाटन किया जिनकी ब्रिटिश इतिहासकारों ने उपेक्षा कर दी थी।
- उन्होंने चैतन्य की नए सिरे से व्याख्या की तथा वैष्णव धर्म पर लगाए गए आक्षेपों का निवारण किया।
- 6 अगस्त, 1925 में उनका देहावसान हो गया।
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