laghu_sansad_ka_sach
धर्म के ठेकेदार भड़काना जानते हैं, पर दौलत लुटाने की बात हो तो भीगी बिल्ली बन जाते हैं, क्यों
सबको डर है महजब मेरा न लुप्त हो जाए,
मुझको डर है कहीं धरा से प्रकृति लुप्त न हो जाए।।
— राकेश सिंह
कुछ धर्मज्ञ बड़ी निडरता के साथ बहुत कुछ गलत बोल जाते हैं। उन्हें पता है उनके पीछे गुलाम मानसिकता की बड़ी फौज खड़ी है। फिर दबंगाई से क्यों न बोलेंगे? डर तो उन्हें होता है जो गरीबों के उत्थान में अपना सब कुछ न्यौछावर कर देते हैं बिना किसी मजहब में भेदभाव किए। उन्हें पता है इन बेसहारा गरीबों के पास कोई भी धर्म के बड़े सहायता करने नहीं आते हैं। बस ऊंचे पदों पर बैठकर जहर उगलते हैं एक—दूजे के लिए, और उनसे भड़क उठती हैं गुलाम मानसिकता।
हां, मैंने देखा है उन्हें बेवाक बोलते हुए। परंतु वे जितनी बेवाकी से अपने समुदाय के लोगों को उग्र और मर मिटने के लिए उत्साहित करते हैं, शायद उतनी ही उदारता से उन गुलाम मानसिकता के लोगों की आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाने के लिए कभी आगे नहीं आए। और न ही अपने समुदाय के गरीब लोगों में अपनी अकूत धन सम्पत्ति को यह कहते हुए बांटते हैं कि हमारे धर्म में कोई गरीब न रहे, कोई भूखा न सोए। कोई क्यों लुटाएगा अपना धन, उसने मेहनत से कमाया है, धर्म थोड़े ही देता है पैसा। आज तक कितनों बड़ बोलो ने लुटाया धर्म के नाम पर अपनी मेहनत का पैसा। उसने तो उससे अपनी अय्याशी भर जिंदगी को पालना सीखा है, नहीं तो एक ही मजहब में गरीब—अमीर को भेद कैसे?
हां, यह सच है धर्म, जाति, संस्था, विचारधारा के लोग तब बंटते नजर आते हैं जब आर्थिक रूप से बराबर हो। महत्वाकांक्षाी को यह मंजूर नहीं है। क्योंकि बौद्धिक वर्ग हमेशा से ही अय्याशी भरी जिन्दगी जीना चाहता है। वे लोग आमजन की कमजोरी को पहचान कर उसे अपनी लक्जरी जिन्दगी को कामयाब बनाने में लगाते हैं।
अगर धर्म सबको समान जीने का अधिकार देता है तो मैं पूछना चाहता हू्ं कि फिर एक ही धर्म के लोगों में आर्थिक और सामाजिक भेदभाव क्यों?
कभी कोई धर्मज्ञ (पुजारी, पादरी, उलेमा या अन्य धर्मों के बड़े प्रतिष्ठित लोग) अपने समुदाय के लोगों के बीच उनके सुख—दु:ख जानने गया है? क्या आर्थिक रूप से और मेहनताने में सभी समान लाभ देने के पक्ष में रहे हैं, शायद नहीं?
हां, आपसी द्वेषभाव से कट्टर लोगों ने किसी बेबस और गरीब का घर उजाड़ा होगा, बसाया नहीं।
मैंने अपने जीवने के करीब 25 सालों से लोगों को धर्म की उलझन में ही देखा हे। इनमें से कई इतने चतुर होते हैं जो धर्म की आढ़ में अपना आर्थिक स्वार्थ साधने लगते हैं। अपने ही समुदाय के लोगों को आर्थिक रूप से कमजोर करते हैं।
मेरा किसी धर्म से कोई बैर नहीं है, मैंने धर्म को पशुवृत्तियों से इतर होने का माध्यम माना है। क्योंकि धर्म यह सीखाता है कि आपको अपना दैनिक जीवन नियमित और संयमित रूप से गुजारना है। सभी धर्म मानव कल्याण की कामना के लिए हैं। जो विभिन्न परिवेश में क्षेत्रीय सुविधाओं के अनुरूप ऊपजे हैं।
यदि हम बात करें मानव जाति के आरंभिक धर्म की तो इतिहासकारों के मुताबिक सभी सभ्यताओं ने प्रकृति के उपादानों को ही पूजाा है, जिनमें प्रमुख है हमारे दैनिक जीवन के नियंता सूर्य। सूर्य को अलग—अलग सभ्यताओं में अलग—अलग नामों से पूजा गया। अगर विज्ञान कि माने तो सूर्य से ही समस्त प्रकृति के जीव ऊर्जा पाते हैं और अपने जीवन जीते हैं।
आज हम तकनीक के युग में जीते हैं, धर्म के कई मिथ्यकों को विज्ञान ने तोड़ दिया है। फिर भी हम वही धर्मों के आड़म्बरों में फंसे हैं। बड़े एवं उच्च वर्गीय लोग गरीब व मध्यम वर्गीय लोगों को भड़का कर अपना एवं अपने चाहने वालों का जीवन सुखद बनाते हैं। जिसे गरीब लोग समझ नहीं पाते हैं।
आज सम्पूर्ण मानव जाति की वजह से प्रकृति का अस्तित्व खतरे में है और हम धर्म को लेकर लड़ रहे हैं। आज विज्ञान का मानव श्रम से विश्वास उठ गया है, तभी तो वह आर्टिफिशियल इंटेलीजेंसी पर अधिक भरोसा दिखा रहा है।
मैं सभी धर्मों के लोगों से निवेदन करता हूं कि हमें धार्मिक संस्थाओं को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाना है बल्कि सद्भाव से और आपसी सहमति से हमें देश और प्रकृति का संरक्षण करना है।
यदि हम ऐसे ही लड़ते रहे तो एक दिन न मानव बचेगा और न प्रकृति। मैंने हमेशा प्रकृति को एक जन्मदात्री के रूप में देखा है जिसने प्रारंभ से ही मानव एवं जीवों को पाला—पोषा है। वही एकमात्र जननी हे जो नि:स्वार्थ भाव से समस्त जीवों का कल्याण करती है।
मानव ने प्रकृति को उपेक्षित किया है, और विज्ञान ने सम्पूर्ण रूप से।
तभी तो धरती को छोड़, मंगल और चांद पर आशियाना ढूंढ़ने चला।।
लेखक — राकेश सिंह राजपूत
एक मजहब दूजे को नीचा दिखाता है,
और विज्ञान धरती का मोह छोड़ चांद-मंगल पर जीवन बसता है।
जिस धरती न हम सबको पाला-पोषा आज उसे ही लजाते हैं,
वाह रे, मानव अपना तन तो अपना न बना सका।।
मुझको डर है कहीं धरा से प्रकृति लुप्त न हो जाए।।
— राकेश सिंह
कुछ धर्मज्ञ बड़ी निडरता के साथ बहुत कुछ गलत बोल जाते हैं। उन्हें पता है उनके पीछे गुलाम मानसिकता की बड़ी फौज खड़ी है। फिर दबंगाई से क्यों न बोलेंगे? डर तो उन्हें होता है जो गरीबों के उत्थान में अपना सब कुछ न्यौछावर कर देते हैं बिना किसी मजहब में भेदभाव किए। उन्हें पता है इन बेसहारा गरीबों के पास कोई भी धर्म के बड़े सहायता करने नहीं आते हैं। बस ऊंचे पदों पर बैठकर जहर उगलते हैं एक—दूजे के लिए, और उनसे भड़क उठती हैं गुलाम मानसिकता।
हां, मैंने देखा है उन्हें बेवाक बोलते हुए। परंतु वे जितनी बेवाकी से अपने समुदाय के लोगों को उग्र और मर मिटने के लिए उत्साहित करते हैं, शायद उतनी ही उदारता से उन गुलाम मानसिकता के लोगों की आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाने के लिए कभी आगे नहीं आए। और न ही अपने समुदाय के गरीब लोगों में अपनी अकूत धन सम्पत्ति को यह कहते हुए बांटते हैं कि हमारे धर्म में कोई गरीब न रहे, कोई भूखा न सोए। कोई क्यों लुटाएगा अपना धन, उसने मेहनत से कमाया है, धर्म थोड़े ही देता है पैसा। आज तक कितनों बड़ बोलो ने लुटाया धर्म के नाम पर अपनी मेहनत का पैसा। उसने तो उससे अपनी अय्याशी भर जिंदगी को पालना सीखा है, नहीं तो एक ही मजहब में गरीब—अमीर को भेद कैसे?
हां, यह सच है धर्म, जाति, संस्था, विचारधारा के लोग तब बंटते नजर आते हैं जब आर्थिक रूप से बराबर हो। महत्वाकांक्षाी को यह मंजूर नहीं है। क्योंकि बौद्धिक वर्ग हमेशा से ही अय्याशी भरी जिन्दगी जीना चाहता है। वे लोग आमजन की कमजोरी को पहचान कर उसे अपनी लक्जरी जिन्दगी को कामयाब बनाने में लगाते हैं।
अगर धर्म सबको समान जीने का अधिकार देता है तो मैं पूछना चाहता हू्ं कि फिर एक ही धर्म के लोगों में आर्थिक और सामाजिक भेदभाव क्यों?
कभी कोई धर्मज्ञ (पुजारी, पादरी, उलेमा या अन्य धर्मों के बड़े प्रतिष्ठित लोग) अपने समुदाय के लोगों के बीच उनके सुख—दु:ख जानने गया है? क्या आर्थिक रूप से और मेहनताने में सभी समान लाभ देने के पक्ष में रहे हैं, शायद नहीं?
हां, आपसी द्वेषभाव से कट्टर लोगों ने किसी बेबस और गरीब का घर उजाड़ा होगा, बसाया नहीं।
मैंने अपने जीवने के करीब 25 सालों से लोगों को धर्म की उलझन में ही देखा हे। इनमें से कई इतने चतुर होते हैं जो धर्म की आढ़ में अपना आर्थिक स्वार्थ साधने लगते हैं। अपने ही समुदाय के लोगों को आर्थिक रूप से कमजोर करते हैं।
मेरा किसी धर्म से कोई बैर नहीं है, मैंने धर्म को पशुवृत्तियों से इतर होने का माध्यम माना है। क्योंकि धर्म यह सीखाता है कि आपको अपना दैनिक जीवन नियमित और संयमित रूप से गुजारना है। सभी धर्म मानव कल्याण की कामना के लिए हैं। जो विभिन्न परिवेश में क्षेत्रीय सुविधाओं के अनुरूप ऊपजे हैं।
यदि हम बात करें मानव जाति के आरंभिक धर्म की तो इतिहासकारों के मुताबिक सभी सभ्यताओं ने प्रकृति के उपादानों को ही पूजाा है, जिनमें प्रमुख है हमारे दैनिक जीवन के नियंता सूर्य। सूर्य को अलग—अलग सभ्यताओं में अलग—अलग नामों से पूजा गया। अगर विज्ञान कि माने तो सूर्य से ही समस्त प्रकृति के जीव ऊर्जा पाते हैं और अपने जीवन जीते हैं।
आज हम तकनीक के युग में जीते हैं, धर्म के कई मिथ्यकों को विज्ञान ने तोड़ दिया है। फिर भी हम वही धर्मों के आड़म्बरों में फंसे हैं। बड़े एवं उच्च वर्गीय लोग गरीब व मध्यम वर्गीय लोगों को भड़का कर अपना एवं अपने चाहने वालों का जीवन सुखद बनाते हैं। जिसे गरीब लोग समझ नहीं पाते हैं।
आज सम्पूर्ण मानव जाति की वजह से प्रकृति का अस्तित्व खतरे में है और हम धर्म को लेकर लड़ रहे हैं। आज विज्ञान का मानव श्रम से विश्वास उठ गया है, तभी तो वह आर्टिफिशियल इंटेलीजेंसी पर अधिक भरोसा दिखा रहा है।
मैं सभी धर्मों के लोगों से निवेदन करता हूं कि हमें धार्मिक संस्थाओं को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाना है बल्कि सद्भाव से और आपसी सहमति से हमें देश और प्रकृति का संरक्षण करना है।
यदि हम ऐसे ही लड़ते रहे तो एक दिन न मानव बचेगा और न प्रकृति। मैंने हमेशा प्रकृति को एक जन्मदात्री के रूप में देखा है जिसने प्रारंभ से ही मानव एवं जीवों को पाला—पोषा है। वही एकमात्र जननी हे जो नि:स्वार्थ भाव से समस्त जीवों का कल्याण करती है।
मानव ने प्रकृति को उपेक्षित किया है, और विज्ञान ने सम्पूर्ण रूप से।
तभी तो धरती को छोड़, मंगल और चांद पर आशियाना ढूंढ़ने चला।।
लेखक — राकेश सिंह राजपूत
एक मजहब दूजे को नीचा दिखाता है,
और विज्ञान धरती का मोह छोड़ चांद-मंगल पर जीवन बसता है।
जिस धरती न हम सबको पाला-पोषा आज उसे ही लजाते हैं,
वाह रे, मानव अपना तन तो अपना न बना सका।।
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