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अभावों ने कबीरदास को धर्म एवं जाति विरोधी बनाया
कबीरदास, भारतीय संत-कवि, भक्ति आंदोलन के प्रमुख स्तंभों में से एक थे। उनकी रचनाएं आज भी लोगों गाते हैं और वे समाज को एक नई दिशा प्रदान करती हैं। कबीरदास के जीवन पर उनके सामाजिक और आर्थिक अभावों का गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने इन अभावों को सहन किया और उनसे बहुत कुछ सीखा, जिसे उन्होंने दोहों के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाया। यह कहना उचित होगा कि उनके जीवन के संघर्ष और अभावों ने उन्हें धर्म एवं जाति-व्यवस्था में आए आड़म्बरों के खिलाफ खड़ा होने की प्रेरणा दी।
कबीरदास का जीवन और अभाव
कबीर का जन्म 15वीं शताब्दी में एक गरीब परिवार में हुआ। वे काशी में एक जुलाहे के रूप में पले-बढ़े। सामाजिक दृष्टि से वे निचली जाति से संबंधित थे, जिसे उस समय के समाज में तिरस्कार और शोषण का सामना करना पड़ता था। धर्म और जाति के आधार पर होने वाले भेदभाव ने उनके मन को झकझोर दिया। उनके जीवन का संघर्ष और समाज के प्रति उनकी पीड़ा उनकी रचनाओं में स्पष्ट झलकती है।
धर्म एवं जाति के प्रति कबीर का दृष्टिकोण
कबीरदास ने धर्म और जाति को मानवता के लिए बाधा माना। उन्होंने देखा कि धर्म और जाति का उपयोग लोगों को बांटने, शोषण करने और झूठे नियमों से दबाने के लिए किया जाता है। उनका कहना था:
"जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान।।"
इस दोहे में कबीर स्पष्ट करते हैं कि ज्ञान और गुण ही व्यक्ति की पहचान होनी चाहिए, न कि उसकी जाति।
अभावों से उपजा विरोध
कबीर का जीवन सामाजिक और धार्मिक अन्याय का प्रत्यक्ष उदाहरण था। निम्न जाति के व्यक्ति होने के कारण उन्हें समाज द्वारा बार-बार अपमानित किया गया। उनकी गरीबी ने उन्हें सिखाया कि आर्थिक स्थिति और जाति के कारण इंसान को नीचा दिखाने का अधिकार किसी को नहीं होना चाहिए। उन्होंने धर्म के ठेकेदारों और पाखंडियों की कड़ी आलोचना की, जो जाति और धर्म के नाम पर समाज को विभाजित करते थे।
उन्होंने रमैनी, सबद और साखी आदि में कहा:
"माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर।
कर का मनका छोड़ दे, मन का मनका फेर।"
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"कर पाथर जोरि के मस्जिद लई बनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा भया खुदाय।।"
इन दोहों के माध्यम से उन्होंने धर्म में आए दिखावा, पाखण्ड़ और आडंबर की आलोचना की, जो धर्म और जाति की जड़ों में बसा था।
कबीर का संदेश और उसकी प्रासंगिकता
कबीरदास ने मानवता को सर्वोपरि माना। उन्होंने न केवल जाति व्यवस्था का विरोध किया, बल्कि हिंदू और मुस्लिम धर्मों के बीच सामंजस्य स्थापित करने का भी प्रयास किया। उन्हें अभावों ने सिखाया कि हर इंसान समान है और उसकी पहचान उसके कर्मों से होनी चाहिए।
आज भी कबीर की ये शिक्षाएं अत्यंत प्रासंगिक हैं, क्योंकि धर्म और जाति के नाम पर भेदभाव आज भी जारी है।
निष्कर्ष
कबीरदास के जीवन में अभाव और संघर्षों ने उनकी सोच को गहराई दी और उन्हें धर्म तथा जाति के खिलाफ खड़ा किया। उनकी कविताएं और शिक्षाएं समाज में समानता और भाईचारे की भावना को बढ़ावा देने के लिए प्रेरित करती हैं। यह कहना सत्य है कि अभावों ने कबीरदास को धर्म और जाति विरोधी बनाया, लेकिन उनके अनुभवों ने उन्हें एक संत और महान विचारक के रूप में स्थापित किया।
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