Aadikalin-hindi-sahitya-ki-pravrittiyan
हिन्दी साहित्य में किसी काल की प्रवृत्तियां उसके उपलब्ध साहित्य सामग्री के आधार पर निर्धारित की जाती हैं। उस समय की साहित्यिक कृतियों का विश्लेषण करने से ज्ञात होता है कि इस काल के साहित्य की क्या विशेषताएं रही हैं। आदिकाल भाषा की दृष्टि से संक्रान्ति काल रहा है और भावों की दृष्टि से आध्यात्मिक तथा चरित्र प्रधान काव्य एवं बाद में वीररस व शृंगारिक रस से युक्त रहा।
सातवीं शताब्दी का काल अपभ्रंश साहित्य का अभ्युदय काल था, किन्तु अपभ्रंश में भी धीरे-धीरे अवहट्ठ या पुरानी हिंदी का समावेश हो रहा था, जिसके कारण यह परिनिष्ठित अपभ्रंश या पुरानी हिंदी का रूप धारण कर रही थी फिर भी साहित्यिक प्रवृत्तियां अपना रूप लिए हुए थीं। अतः प्रमुख प्रवृत्तियों का निरूपण करते हैं तो अनेक प्रवृत्तियां सामने आती हैं-
1. वीरगाथात्मक काव्य रचनाएं VirGathatmak Kavya Rachanaen
आदिकालीन साहित्य में वीरगाथाओं का विशेष प्रचलन था, जिसमें कवि अपने आश्रयदाताओं की वीरता साहस, शौर्य एवं पराक्रम को अतिरंजित बनाकर प्रस्तुत करते थे।
युद्धों का सजीव चित्रण किया जाता था। इन युद्धों का कारण नारी सौन्दर्य या साम्राज्य विस्तार की लालसा रहती थी। राज्यों को विजय करके अपने साम्राज्य में मिलाना एवं शक्ति का विस्तार करना था।
आश्रयदाताओं को प्रसन्न करने के लिए कविगण उनकी प्रशंसा को अतिशयोक्तिपूर्ण ढंग से वर्णित करते थे। इस काल का रासो साहित्य इसका प्रमाण है। इसलिए रामचन्द्र शुक्ल ने इस काल का नाम वीरगाथा काल रखा।
2. युद्धों का वर्णन Yudhdon ka sajeev Varana
आदिकालीन साहित्य से प्रतीत होता है कि राजा का प्रजा पर ध्यान कम और अपने साम्राज्य विस्तार का ध्यान ज्यादा रखता था, जिसके कारण आए दिन युद्ध के बिगुल बज उठते थे। तत्कालीन कवियों ने काव्यों में युद्धों का सजीव वर्णन करके जनसमूह में एक चेतना प्रकट की और कहा युद्ध यदि आवश्यक है तो करना चाहिए। युद्ध के समय सेना में ओजस्वी और वीररस के भावों से कवि सैनिकों में जोश एवं उत्साह भर देते थे।
3. संकुचित राष्ट्रीयता Sankuchit Rashtriyata
आदिकाल के चारण कवियों द्वारा आश्रयदाताओं की स्तुति तथा प्रशंसा इस प्रकार की गई कि देशद्रोही जयचंद का भी गुणानुवाद कर दिया। जयचंद की प्रशंसा में 'जयचंद प्रकाश' (भट्ट केदार कृत) तथा 'जयमंयक जस चन्द्रिका' (मधुकर कवि कृत) नामक ग्रंथ लिखे।
उस समय राष्ट्र का मतलब एक राजा या सामन्त की राज्य सीमा थी, जिसे वह अपना मानते थे। सम्पूर्ण भारत को राष्ट्र नहीं समझा गया। इसी कारण पृथ्वीराज चौहान को शहाबुद्दीन गौरी ने परास्त किया।
4. लोकभाषा साहित्य Lokbhasha Sahitya
7वीं शताब्दी से 10वीं शताब्दी की अपभ्रंश लोक-भाषा के रूप में प्रचलित रही। इस समय के सिद्धाचार्यों, जैनाचार्यों एवं नाथ सम्प्रदाय के अनुयायियों ने लोक भाषा में ही अपनी रचनाएं प्रस्तुत की। जिसमें कर्मकाण्ड, आडम्बर व ब्राह्मण मत का विरोधी स्वर उभरकर आया और जनता में नई चेतना जाग्रत हुई।
डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा- ''साहित्य में प्रधान रूप से इस समय का साहित्य धार्मिक है, इसमें सहज जीवन पर, आन्तरिक शुचिता पर और सच्चाई के जीवन पर अधिक जोर दिया गया।''
5. वीर और शृंगार रस का समन्वय Vir or shrigar ras ka samanvaya
इस समय की साहित्यिक रचनाओं से ज्ञात होता है कि कवि वीररस और शृंगार रस को साथ लेकर काव्य रचना कर रहे थे। इस समय के कई युद्ध साम्राज्य विस्तार के साथ नारी सौन्दर्य की लालसा में भी लड़े गए थे। रणथम्भौर का युद्ध 1301 ईस्वी. में राव हम्मीर और अलाउद्दीन खिलजी के बीच हुआ।
'हम्मीर रासो' और 'खुमान रासो' में भी वीररस के साथ शृंगार रस की अभिव्यक्ति हुई है। पृथ्वीराज रासो में भी नारी सौन्दर्य का चित्रण है।
बीसलदेव रासो में तो विप्रलम्भ शृंगार का सुन्दर निर्वाह किया गया है।
'कीर्तिलता' और 'कीर्तिपताका' वीररस की कृति है, तो 'विद्यापति पद्यावली' में अद्भुत नारी सौन्दर्य की छटा दिखाई देती है।
6. ऐतिहासिकता की अपेक्षा कल्पना की प्रधानता Kalpana ki pradhanta
राज्याश्रित कवियों का लक्ष्य राजा की प्रशंसा करना था। उनकी दृष्टि में ऐतिहासिकता गौण थी। वे अपनी प्रतिभा को मात्र पोषित करते थे, प्रकट नहीं। इसलिए उनके कवित्व के प्रदर्शन में केवल उनका स्वार्थमय जीवन निर्वाह का उद्देश्य रहता था।
राजा को कल्पना लोक में विचरण कराते रहते और वास्तविकता से दूर रखते थे तथा अतिशयोक्ति युक्त वर्णन करके आश्रयदाता को प्रसन्न रखते थे, यही इन कवियों का उद्देश्य था।
7. प्रबन्ध एवं मुक्तक गीत Prabandha Evm Muktak Geet
आदिकालीन काव्य दो रूपों में मिलता है। पहला प्रबन्ध काव्य, जो चरित काव्य के रूप में चित्रित होते थे जैसे:- जैन साहित्य में चरित काव्यों की परम्परा रही है तथा प्रबन्ध काव्य वीरगाथा के रूप में पृथ्वीराज रासो तथा दूसरा मुक्तक गीति काव्य 'बीसलदेव रासो' में वर्णित है।
8. डिंगल भाषा युक्त काव्य Dingal Bhasha Yukt Kavya
आदिकाल को आचार्य शुक्ल ने वीरगाथा काल, इसी डिंगल भाषा में रचित रासो साहित्य के कारण कहा है। इस काल में राजस्थानी भाषा में जो साहित्य रचा गया वह डिंगल भाषा का साहित्य है।
इस प्रकार आदिकालीन साहित्य की प्रवृत्तियों में सिद्धों की वाणी, जैनाचार्यों के चरित काव्य, धार्मिक सिद्धान्त, साधना पद्धति, वीर एवं शृंगार रस से युक्त प्रबंध एवं मुक्त गीति काव्य, अपभ्रंश, अवहट्ठ एवं डिंगल भाषा में रचित काव्य है।
इसमें दोहा, सोरठा छन्द का बाहुल्य है, जिसका उद्देश्य लोकचेतना, लोकरंजन तथा लोकोन्मुख रहा है, जिसमें फागु, चर्चरी, खुसरो की पहेलियां आदि तथा रासो काव्यों में युद्धों का चित्रण तथा शृंगार रस (संयोग और वियोग) विशेष रूप से विप्रलंभ 'बीसलदेव रासो' एवं 'सन्देश रासो' में देखने को मिलता है।
छन्दों में दोहा और सोरठा के साथ छप्पय, अरिल्ल, उल्लाला का प्रयोग हुआ।